आज से शुरू हो रहे दशक में तो वैसे भारत के सामने कई चुनौतियाँ हैं लेकिन अगर इस दशक में गैरबराबरी पर काबू पा लिया जाए तो कई समस्याओं का समाधान खुद-ब-खुद हो जाएगा। सही मायने में दशक की सबसे बड़ी चुनौती तो तेजी से बढती गैरबराबरी है। दुनिया की एक प्रमुख आर्थिक पत्रिका फोर्ब्स ने बीते दिनों भारत के सौ सबसे अमीर लोगों की सूची जारी की। इस सूची के मुताबिक भारत के सबसे अमीर व्यक्ति रिलायंस वाले मुकेश अंबानी हैं। वे 32 अरब डालर के मालिक हैं। दूसरे नंबर पर स्टील सम्राट कहे जाने वाले लक्ष्मी मित्तल हैं। मित्तल कुल मिलाकर 30 अरब डालर के मालिक हैं। तीसरे पायदान पर मुकेश के छोटे भाई अनिल अंबानी हैं। वे 17.5 अरब डालर के मालिक हैं। कभी भारत के सबसे अमीर रहे विप्रो वाले अजीम प्रेमजी चौथे स्थान पर पहुंच गए हैं। भारत के सौ सबसे अमीर लोग 276 अरब डालर के मालिक हैं। यह देश के कुल जीडीपी का एक चौथाई है।
पत्रिका ने बताया कि भारत में अरबपतियों की संख्या 52 हो गई है। यह पिछले साल की तुलना में 27 अधिक है। 2007 में भारत में अरबपतियों की संख्या 54 थी लेकिन मंदी की वजह से पिछले साल कई कारोबारी अरबपतियों की सूची से बाहर हो गए थे। इस पत्रिका ने अमीरी के मामले में भारत और चीन की तुलना भी की है। बताया गया है कि चीन में भले ही अरबपतियों की संख्या 79 हो लेकिन भारत की सौ अमीरों की तुलना में चीन के सौ सबसे अमीर लोगों के पास कम पैसा है। वे सिर्फ 170 अरब डालर के मालिक है। जो भारत के सौ सबसे अमीर लोगों की संपत्ति से 100 अरब डालर कम है। भारत के दस सबसे अमीर लोगों की संपत्ति में पिछले साल की तुलना में 60 फीसदी बढ़ोतरी हुई है।
यह पत्रिका इसे भारत का एक सशक्त चेहरा मानती है। इसका कहना है कि मंदी के बाद भारत के अच्छे दिन लौट आए हैं। पत्रिका इसे शेयर बाजार की तेजी से जोड़कर देखती है। देश की मुख्यधारा की मीडिया ने इस खबर को प्रमुखता दी और उसी लाइन पर खबरें प्रकाशित की जो इस पत्रिका की लाइन थी। इससे ऐसा लगता है कि देश की मुख्यधारा की मीडिया भी इसे एक बड़ी कामयाबी मानती है। ज्यादातर अखबारों में इस खबर को पहले पन्ने पर प्रकाशित किया गया। प्रमुख चैनलों पर भी यह खबर छाई रही।
अहम सवाल यह है कि क्या सचमुच यह एक ऐसी खबर है जिस पर इतराया जा सकता है? आखिर देश की कुल जीडीपी का एक चौथाई सिर्फ सौ लोगों की मुट्ठी में कैद हो तो इस पर जश्न कैसे मनाया जा सकता है? यह तो गंभीर चिंता का विषय होना चाहिए। सही मायने में देखा जाए तो ऐसा होना मौजूदा आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था की नाकामयाबी को ही दर्शाता है। क्योंकि इसमें अमीर की अमीरी और गरीबों की गरीबी बढ़ती ही जा रही है। पूरी आर्थिक सत्ता का कुछ हाथों में केंद्रित होते जाना एक खास तरह का असंतुलन पैदा कर रहा है।
इसी असंतुलन का नतीजा यह है कि जब एक तरफ अमीरों की अमीरी काफी तेजी से बढ़ रही थी देश के अन्नदाता किसान आत्महत्या करने को मजबूर थे। अमीरी की इस खबर के आने के बाद ही उड़ीसा से यह खबर आई है कि वहां सिर्फ बीते अक्टूबर में 32 किसानों ने आत्महत्या की। यह सरकारी आंकड़ा है। इसकी पुष्टि वहां के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने भी कर दी है। इस बात से तो देश का हर नागरिक वाकिफ है कि सरकारी आंकड़े और सही आंकड़े में काफी फर्क होता है। इसी के आधार पर अंदाजा लगाया जा सकता है कि जब एक राज्य में एक महीने में इतने किसान काल कवलित होने पर मजबूर हो गए तो पिछले एक साल में कितने किसानों ने आत्महत्या की होगी।
दरअसल, जिस आर्थिक व्यवस्था की नींव मनमोहन सिंह ने बतौर वित्तमंत्री 24 जुलाई 1991 को नई आर्थिक नीतियों की जरिए रखी थी वह अब अपने पूरे रंग में दिख रहा है। भूमंडलीकरण के कोख से उपजी यह ऐसी व्यवस्था है जिसमें हाशिए पर मौजूद लोगों को मुख्यधारा से जोड़ने की कोशिश नहीं हो रही है बल्कि प्रत्यक्ष और परोक्ष तौर पर ऐसा बंदोबस्त किया जा रहा है कि वे पूरे परिदृश्य से ही बाहर हो जाएं। यही वजह है कि जब हाशिए पर मौजूद लोगों की हक की बात कोई करता है तो उसे दबा दिया जाता है। उनके लिए कोई योजना बनाने की बात होती है तो उद्योगपतियों के संगठन जमकर हो-हल्ला मचाते हैं। आज भी कई बड़े उद्योगपति रोजगार गारंटी योजना को सरकारी पैसे की बर्बादी ही मानते हैं।
भूमंडलीकरण के बाद बाजारवादी ताकतों के इशारे पर तैयार की गई व्यवस्था में सारा जोर मध्य वर्ग पर रहा। क्योंकि उद्योगपतियों के लिए यही उनका उपभोक्ता वर्ग था। इस वर्ग को जमकर सपने बेचे गए। इसे रोजमर्रा के काम में ही इस तरह उलझा दिया गया कि यह वर्ग कभी भी संगठित होकर व्यवस्था के खिलाफ नहीं खड़ा हो सके। इस उपभोक्ता वर्ग को बाजारवादी ताकतों ने नए-नए सपने दिखाए और उसी सपने को पूरा करने की दौड़ में यह वर्ग शामिल हो गया। इसी का परिणाम है मौजूदा जीवनशैली उपयोग के बजाए उपभोग पर आधारित हो गई और बाजारवादी ताकतों की अमीरी बढ़ती रही।
बहरहाल, जिस एक साल में देश में अरबपतियों की संख्या 27 से बढ़कर 52 हो गई और देश के सबसे दस अमीर लोगों की संपत्ति 60 फीसदी बढ़ गई उसी एक साल में देश के दूसरे तबकों के साथ क्या हुआ, इस पर विचार करना जरूरी है। ये उद्योगपति जिस निजी क्षेत्र के बूते अपनी अमीरी बढ़ा रहा है उस निजी क्षेत्र की हालत इस एक साल के दौरान बेहद खराब रही। मंदी के नाम पर कर्मचारियों की छंटनी की गई। जो कर्मचारी बचे भी हुए हैं उनका वेतन बढ़ाना तो दूर उनके पगार में कटौती की गई। कहा गया कि मंदी है इसलिए नौकरी बचानी है तो इन चीजों को तो बर्दाश्त करना ही होगा। नौकरी करने वालों के पास भी इसे स्वीकार करने के अलावा कोई चारा नहीं था। एक तरफ तो मंदी के नाम पर कर्मचारियों का शोषण किया गया वहीं दूसरी तरफ मालिकों की अमीरी बढ़ती गई। साफ है कि यहां भी कर्मचारियों का हक मारकर अमीरों ने अपनी जेब भारी करने की नीति अपनाई। इससे भी साफ है कि मौजूदा आर्थिक व्यवस्था किस कदर खोखली है।
इस साल के दौरान आम आदमी के लिए जीने का खर्च काफी बढ़ गई। महंगाई आसमान छू रही है। लोगों के खर्चे बढ़ रहे हैं लेकिन उनकी आमदनी नहीं बढ़ रही है। सरकार महंगाई रोकने के बजाए महंगाई को हवा देने की नीति पर काम कर रही है। यही वजह है कि प्रधानमंत्री और कृषि मंत्री यह बयान देते हैं कि महंगाई तो बढ़ेगी ही। इसकी आड़ में बाजारवादी ताकतें सक्रिय हो जाती हैं और लोगों की जरूरत की चीजों के दाम बढ़ा दिए जाते हैं। सरकार के इस रवैये से उसकी प्राथमिकता का पता चलता है। साफ है कि सरकार बाजारवादी ताकतों के साथ है। तब ही सरकार चलाने वाले उन्हें फायदा पहुंचाने वाले बयान देती है।
जिस देश में अभी भी 46 फीसदी बच्चे कुपोषण के शिकार हों उस देश में अरबपतियों की बढ़ती संख्या पर जश्न मनाने को किसी भी तरह से जायज नहीं ठहराया जा सकता है। जिस एक साल के दौरान अमीरों की अमीरी में 60 फीसदी बढ़ोतरी हुई है उस एक साल में खराब मानसून की वजह से नए-नए क्षेत्रों के किसान विकट समस्या का सामना कर रहे हैं। देश में भूख का एक नया चेहरा विकसित हो रहा है। किसानों की आत्महत्या की खबरें अब महाराष्ट और आंध्र प्रदेश के अलावा दूसरे राज्यों से आने लगी हैं। सेज के नाम पर गरीबों के संसाधनों पर अमीरों का कब्जा बढ़ता जा रहा है। पर सत्ता प्रतिष्ठान इसके बावजूद इन समस्याओं पर चिंतित नहीं है। देश के आम तबके को समझ जाना चाहिए कि यह खोखली व्यवस्था उनके नाम पर चलाई भले ही जा रही हो लेकिन यह कम से कम उनके लिए नहीं है। क्या इस दशक में व्यवस्था का चरित्र बदलेगा?
हिमांशु जी ने बहुत ही विशलेषण का विषय उठाया है. देश की नीतिया निर्धारित करते समय मंत्रिओं और आई ऐ एस अफसरों को आम व्यक्तिओं, सामाजिक संस्थानों, स्वयं सेवी संगठनो को साथ रखना चहिये ओर सोचना चहिये की एक गरीब मजदूर, किसान को उस नियम से कितना फायदा और नुक्सान होगा.
जैसे प्रकृति अपना संतुलन आपने आप बना लेती है, वेसे ही समाज, देश की दशा अपने आप ठीक हो जायेगी. न तो रोम का साम्राज्य हमेशा रहा है न ही कंश का दमन हमेशा रहेगा.
जब जब प्रथ्वी पर आत्याचार …………………………