व्यर्थ रात सूनी आँखों में,
बहुत देर तक सोकर आये|
सुबह सुबह बिस्तर से उठकर
सपने बहुत देर पछताये|
यदि रात पर्वत पर होते,
तारों का आकाश देखते|
निविड़ निशा के स्पंदन को,
दोनों हाथों से समेटते|
यदि किसी नदिया के तट पर,
बनकर रेत पड़े रह जाते|
लहरें आतीं हमसे मिलने,
हम लहरों से हाथ मिलाते|
किंतु व्यर्थ की चिंतायें थीं,
आगे हम कुछ सोच न पाये|
हमने जिसको दिन समझा था,
वह तो रात घोर थी काली|
किंतु मिली जब रात हमें तो,
उसके चेहरे पर थी लाली|
अंतर हम कुछ समझ न पाये,
क्या सच था और क्या था झूठा|
हमको तो जब जिसने बोला,
हमने रोपा वहीं अंगूठा|
दिन निकला तो सच को जाना
सच को जान बहुत बौराये|
पंख मिले इच्छाओं को तो,
ऊंची ऊंची भरी उड़ाने|
किंतु लक्ष्य की डोर हमेशा
मिला दूसरा कोई ताने|
आवाज़ों ने शोर किया तो,
दबे गले खूनीं पंजों से|
रहीं देखती खड़ीं दिशायें,
कौन बचाये भुजदंडों से|
मजबूरी के लाल किले पर
फिर से झंडा फहरा आयें|