—–विनय कुमार विनायक
एक जैसे होते दुनिया भर के बच्चे!
एक ही बाल-सुलभ हंसी-रुदन-कौतुक
बच्चे चाहे हों अमेरिकी/अफगानी/
तालिबानी/ब्रितानी/ईरानी/पाकिस्तानी
भारतीय सप्तद्वीप-नौखण्ड में कहीं के
एक जैसे होते दुनिया भर के बच्चे!
दुनिया भर के बच्चों के,मां की कोख से
निकलते ही के हूं—के हूं–कहां—कहां? के
पहले सबाल में ही छिपी होती
विश्वभर की तमाम मानवीय भाषाएं!
जिसे समझ लेती विश्वभर की मांएं
दूध उतर आए छाती से सटाकर
बता देती सारी माताएं कि तुम मेरे
कलेजे के टुकड़े,मेरे कलेजे के पास हो!
और एक जैसे आश्वस्त हो जाते
दुनियाभर के बच्चे सृष्टि के आरम्भ से
अम्–मम्–अम्म—मम्म बोलकर
पुकारते रहे हैं सभी बच्चे
और सुनती-समझती रहीं हैं सारी मांएं
समय-दूरी-स्थान से परे
विश्व की पहली अविकल भाषा को!
चाहे कौशल्या हो सोरी घर में,
या देवकी हो कंश की कारागार में,
चाहे यशोदा हो पनघट में,
या मरियम हो अस्तबल में,
पुकार तो सुन ही लेती हैं सारी माँएं
अपने नन्हे लल्ले/नटवर नागर की!
दुनियाभर के बच्चे और मांओं ने साबित कर दिए
कि मानवीय समझ के लिए बाधक होती नहीं भाषाएं!
फिर क्यों नहीं दुनिया बच्चों के
‘दा-दा, ना-ना’ के देय/निषेध को समझती?
क्यों थमा देते बच्चों को खिलौने के बदले बंदूक?
पुस्तक के बदले पूर्वाग्रह की पोटली?
रोटी के बदले भीख की कटोरी?
क्यों मिला देते जन्म घूंटी में मानवीय प्रेम के बजाय
जातिवादी घृणा-नस्ल-वर्गवाद फिरकापरस्ती का जहर?
तथाकथित संस्कृति-अस्मिता-भाषा के नाम पर!
क्यों काट देते बच्चों को एक दूसरे
धर्म-सम्प्रदाय के प्राकृतिक सहज दाय से?
क्यों छीना जाता बच्चों से निश्छल बचपन/
कुदरती एकता/प्रेम की नैसर्गिक भाषा?
दुनिया की कौन सी भाषा संस्कृति
श्रद्धा-हौआ, कौशल्या, देवकी,
यशोदा, मरियम को मां नहीं मानती?
फिर क्यों दुनियाभर के बच्चों को
उनकी एकमेव भाषा अम्-मम्,अम्मी-मम्मी,
मां-मदर के अलग-अलग अर्थ बताए जाते?
कौन सी धर्म-संस्कृति खास अपनी विरासती
और कौन सी है विधर्मी-काफिरों की?
भला बताएं तो विश्वग्राम के पहरुए;
सम्प्रति हिन्दू-मुस्लिम-ईसाई अपने गिरेबान में
झांककर बताएं कि उनके पूर्वज पीढ़ी के लोग
क्या वही धर्मालम्बी थे जो वे आज हैं?
फिर किन विचार-संस्कार को बचाने के जद्दोजहद में
अपने ही बच्चों से छीन लेते बचपन-भाषा-अपनापा
थमाकर कृत्रिम वेशभूषा,दकियानूसी सोच-विचार-हथियार,
काल कवलित हो चुके ईश-देवदूत मसीहा के नाम पर!
—–विनय कुमार विनायक