तसव्वुर सा सराय मेंरा बना कब्र
अश्क बन गए बरखा
उर की बेकरारी बना टेक
ये बिनाई भी परवश बिन तुम्हारे
अश्क से व्रण को भर रहा
देखकर तुम्हे यू निष्प्राण
खुद का वजूद ख़त्म कर रहा
समंदर सूखा , अश्क भी सूख गए
न जाने कैसी इश्क लगाई
हर लफ्ज़ में तुम्हारे वियोग ही आई
ऊषा तम सा लग रहा हैं
कालिख बनी हया मेरी
अहोरात्र पहर लग रहा हैं
तुम्हारी तसव्वुर मेरे उर को विरान बना रही
तुम्हारी मुहब्बत को गाफिल सा बता रही
पद के आबला अब फूट रहे
मगर यातना का एहसास नहीं
अश्क तब्दील होते शोणित के झीलों में
कही ये तसव्वुर,ये यातना जुदा न हो जाए
कुछ दूर मीलों में
तुम जुदा हो गई हो मगर , तुम्हारी यादें अब भी मुझे
इन आबला से अधिक यातना दे रहे हैं
बताकर मुहब्बत का मरहम
अश्क बन नयन में सराय बना रहे है
ये कैसी यातना है मीठी एहसास
कुटिल बोल, सब ज़ख्म कुरेद रहे
अब बस कर अश्क का मंजर
सुनने को उर राजी नहीं
हार गया मैं खुद ही,
कोई और ताश के पत्ते में बाजी नही