‘समान नागरिक संहिता’ का अवरोधक ‘शरिया कानून’… एक जिहादी सोच

आज देश के बहुमुखी विकास और राष्ट्रीय सुरक्षा के लिये हमारा केंद्रीय शासन दृढ़ संकल्प के साथ आगे बढ़ रहा है l इसी संदर्भ में देश की सम्प्रभुता और अखण्डता एवं आंतरिक सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण “समान नागरिक संहिता” (यू. सी. सी. /UCC/ Uniform Civil Code) पर गहन चर्चा हो रहीं हैं l इसका सर्वाधिक विरोध पूर्व की भांति मुख्यतः मुस्लिम पक्ष एवं उनके नाम पर राजनीति करने वालों के द्वारा ही किया जा रहा है l अनेक आपत्तियों के साथ मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड सहित विभिन्न मुस्लिम संगठन आक्रमक भूमिका निभा रहे है l यह भी ध्यान दिया जाना चाहिये कि देश के कुछ सघन मुस्लिम क्षेत्रों में शरिया कोर्ट के होने के समाचार आते रहते हैं और वहां शरियत के अनुसार ही निर्णय आदि लिए जाते हैं जोकि मूलत: जिहादी सोच का परिचय कराती है। यह अत्यंत दुःखद है कि भारत का इस्लामीकरण करने की कट्टरपंथी मुसलमानों की मानसिकता यथावत बनी हुई है। जबकि मुगलकालीन बर्बरतापूर्ण इतिहास को हम भूले नहीं हैं। अनेक अवसरों पर जिहाद के लिए बम विस्फोटों द्वारा निर्दोषों का रक्त बहाने वाले पकड़े गए मुस्लिम आतंकवादियों से पता चलता है कि उनकी भी तमन्ना यही है कि इस्लामी कानून “शरियत” के अनुसार चले दुनिया l

देश की स्वतंत्रता से पूर्व व पश्चात भी हिन्दुओं के संयम, धैर्य, उदारता एवं सहिष्णुता को अच्छे से ठगा जा रहा है। ध्यान रहे कि 1947 में धार्मिक आधार पर हुए विभाजन के समय देश की लगभग 24% मुस्लिम जनसँख्या को अविभाजित भारत का लगभग 30% भूभाग दिया गया परंतु लगभग 16% मुसलमान ही वहाँ (अविभाजित पाकिस्तान) में बस पाये। इस प्रकार अखंड भारत के विभाजन द्वारा 16% मुसलमानों को हमारे अदूरदर्शी नेताओं की मुस्लिम भक्ति के कारण लगभग दुगना भू भाग मिल गया, फिर भी वे वर्षो से भारत के विकास के लिए अनिवार्य ‘समान नागरिक संहिता’ का आक्रमक विरोध करते आ रहे हैं l वे भूल गये हैं कि भारत विभाजन के पश्चात् उनका नैतिक दायित्व था कि वे पाकिस्तान चले जाएं परंतु नहीं गये, क्यों ? क्योंकि भारत को दारुल इस्लाम जो बनाना है l इसी का परिणाम है कि 1947 में जो मुस्लिम जनसँख्या लगभग ढाई करोड़ थी आज वो लगभग 25 करोड़ (10 गुना ) हो गई हो तो ऐसी संभावना को नकारा नहीं जा सकता l जबकि हिन्दू उस समय 35 करोड़ थे आज वे लगभग 90 करोड़ होंगे (लगभग ढाई गुना)।

क्या सन् 1947 में मुसलमानों को भारत में रोक कर व बसा कर तत्कालीन हमारे नीतिनियन्ताओं से कोई भारी त्रुटि हो गयी थी? क्या इस अदूरदर्शी निर्णय से भारतीय मानस निरंन्तर आहत नहीं हो रहा ? क्या स्वतंत्रता के 75 वर्षों के उपरांत भी मुस्लिम कट्टरपंथियों में “भारत” को “दारुल-इस्लाम” बनाने की दूषित मानसिकता अभी भी जीवित है?

कुछ वर्ष पूर्व भी ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड द्वारा देश के प्रत्येक जिले में शरिया कानून के अनुसार न्यायालय बनाने के विचार के पीछे ऐसी ही घिनौनी मानसिकता सक्रिय हो गयी थी। आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की शरिया अदालत (दारुल-कजा) कमेटी के तत्कालीन संयोजक काजी तबरेज आलम के एक भ्रमित करने वाले कथन के अनुसार शरिया अदालत के गठन करने के पीछे मुख्य कारण मुस्लिम माहिलाओं को न्याय शीघ्र मिलना, देश की वर्तमान न्यायालयों पर बोझ कम होना और सरकार का धन भी कम व्यय होना बताया गया है। लेकिन क्या ऐसा सोचा जा सकता है कि इस्लामिक जगत् कभी भी भारत सहित सम्पूर्ण विश्व को दारुल-इस्लाम बनाने के अतिरिक्त किसी अन्य योजना पर कार्य करेगा ?

जबकि यह भी ध्यान रखना चाहिए कि इस्लामिक कानूनों की एक अन्य विद्वान अंबर जैदी के अनुसार शरीयत कानून केवल उस देश में लागू किया जा सकता है, जिसका शासक मुसलमान हो और वह इस्लाम धर्म को स्वीकार करता हो। शरीयत की रचना ऐसे ही देश को इस्लामी धार्मिक कानूनों के अनुसार चलाने के लिए की गई थी। इस्लामिक व्यवस्था के अनुसार शरियत कानून किसी ऐसे लोकतांत्रिक देश में चलाना उचित नहीं है, जो किसी धर्म को राजकीय धर्म के रूप में स्वीकार नहीं करता। ऐसे में भारत में शरीयत कानून लागू नहीं किया जाना चाहिए, लेकिन देश में मुसलमानों के सामाजिक मामलों में शरियत कानून लागू हैं, जो स्वयं शरीयत के अनुसार भी गलत हैं।अंबर जैदी के अनुसार भी मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड दोहरी बातें करता है। वह अपराध के मामलों में देश के भारतीय दंड संहिता को स्वीकार करता है, लेकिन सामाजिक मामलों में शरीयत लागू करना चाहता है। उन्होंने कहा कि यदि मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की नीयत साफ है, तो उसे आपराधिक मामलों में भी शरीयत की मांग करनी चाहिए l

यह दुःखद है कि भारत में मुसलमानों को लाभान्वित करने के लिए दशकों से अनेक योजनाएं चल रहीं हैं फिर भी उनके कट्टरपन व साम्प्रदायिक आक्रामकता में कोई कमी नहीं दिखती l क्या कश्मीर व वहां के अलगाववादियों पर भारी राजकोष लुटा कर भी उनमें कभी भारत भक्ति का कोई भाव उत्पन्न करने में सफलता मिली ? क्या धर्म के नाम पर जिहाद करने वाले आतंकवादियों के विरुद्ध कभी कोई मुस्लिम संगठन सक्रिय हुआ ? ऐसे अनेक प्रश्नों के सकारात्मक उत्तर की प्रतीक्षा में देशवासी बेचैन है। इनके तुष्टिकरण व सशक्तिकरण से इनका जिहादी जनून कम नहीं हो रहा बल्कि भारतभूमि के भक्तों का अस्तित्व संकटमय हो रहा है।

“शरियत” के बहाने आक्रांताओं की अरबी संस्कृति को देशवासियों पर थोंपने की योजना केवल इस्लामिक शिक्षाओं का दुष्परिणाम है। अतः धर्मनिरपेक्ष देश में संविधान के अनुसार चलने वाले अधिनियमों के अतिरिक्त धर्म आधारित कानूनों का कोई भी प्रावधान आत्मघाती होगा। हमें सावधान रहना होगा कि यू. सी. सी. के विरोध में शरियत कानून का विचार जिहादी सोच को ही बढावा देगा। ऐसा कुप्रयास करने वाले मानवतावादी व उदारवादी विचारधारा के विरुद्ध वातावरण बना कर भारतीय संस्कृति व धार्मिक आस्थाओं को भी आहत करना चाहते है।

अतः ऐसी सभी राष्ट्रघाती समस्याओं का एकमात्र विकल्प है “समान नागरिक संहिता” जिसमें परस्पर अलगाववादी एवं वैमनस्यता बढ़ाने वालें तत्वों पर अंकुश लग सके और न्यायिक व्यवस्था पर पड़ने वाले व्यवधानों को दूर किया जा सके l सम्भवत “समान नागरिक संहिता” के सहारे सभी धर्मावलंबी देश की मुख्य धारा से जुड़ पायेंगे और राष्ट्र के विकास में अपना-अपना यथासंभव योगदान करेंगे l निसंदेह यदि समस्त नागरिकों के एक समान कानून और अधिकार होंगे और धर्म के आधार पर किसी को भी कोई विशेषाधिकार नहीं मिलेगा तो उस स्थिति में परस्पर सामाजिक, सांप्रदायिक और धार्मिक वैमनस्य में भी अवश्य कमी आएगी l

विनोद कुमार सर्वोदय

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