मुझसे बोलती और बतियाती प्रकृति

                प्रभुनाथ शुक्ल

प्रकृति किसी से कुछ लेती नहीं वह सिर्फ देती है। शायद इसी सिद्धांत का पालन नदी और फलों से लदे वृक्ष करते हैं। वृक्ष कबहुँ न फल भखै, नदी न संचय नीर, परमार्थ के कारने साधुन धरा शरीर। प्रकृति मुझसे कुछ लेती नहीं है। वह अपना सब कुछ मुझे लौटाना चाहती है। फल के रुप में मिठास, फूलों के रूप में सुंदरता, नदी और झरने के रूप में जल। चिड़ियों के रूप में चहचहाहट। पेड़ में लगे फल में चिड़िया चोंच मारकर मधुरता का आनंद लेती है। घोंषले में चीं-चीं करते बच्चों को भी इस स्वाद का दिलाती है। उसकी तीखी चोंच की पीड़ा सहने के बाद भी प्रकृति यानी फल-फूल लूट जाना चाहते हैं। जैसे समर्पण ही उसकी नियति है।

शायद, प्रकृति के साथ हमने जीना छोड़ दिया है। मेरे
आंगन के आहाते में एक अमरूद का एक पेड़ है। बेहद खूबसूरत और मासूम सा। कितना कोमल अंकुरण था उसका, लेकिन समय के साथ अब वह तरुण हो गया है। चिलचिलाती धूप में हमने उसके तने को शीतल जल से सींचा। उसकी निराई और गुणाई की। अब वह समझने लगा है अपनी जिम्मेदारियों को। बारिश आने से पहले ही उसकी टहनियों में सुंदर सफ़ेद फूल आ गए थे। बाद में फल भी उसमें आ गए। बारिश आई तो फलों ने बड़ा आकार लिया। अब वह मीठा फल देने लगा है। वह मेरी मेहनत का दाम लौटने लगा है। जैसे वह मेरा ऐहसान नहीं लेना चाहता।

आंगन का आमरूद हो या बागों के फलदार दूसरे पेड़-पौधे सब परोपकारी है। वह सब कुछ लुटाने को तैयार है। वह हमें संदेश देते हैं कि तुम मेरे लिए थोड़ा सा करो मैं तुम्हारी जिंदगी और पीढ़ियों के लिए करूँगा। मैं तुम्हें फल दूंगा, शीतल छांव दूंगा। लकड़ियां दूंगा। तुम्हें जिंदगी का अनुभव दूंगा। प्रतिकूल परिस्थितियों में भी कैसे बने रहना है वह मंत्र भी दूंगा। प्रकृति कभी उदास होना नहीं सीखाती। तपसी धूप, महाप्रलय सी बारिश या कड़ाके की शीत सब में मुस्कुराती है। वृक्ष भी मुस्कुराता है। जब उसकी डालियों में मीठे फल आते हैं तो वह इतराता नहीं खुद झुक जाता है। लोगों को बुलाता है कि आओ और मुझे तोड़ लो। वह संदेश देता है मैं तुम्हारे और संसार के दूसरे प्राणियों के लिए जीता हूँ। तुमने मुझे पालपोष कर बड़ा किया है। फिर मैं तुम्हें कैसे भूल सकता हूँ। लेकिन क्या इंसान ऐसा करता है। सब कुछ होने के बाद हम कितने अजनबी और अकेले हैं।

मेरे बगीचों के फल और पेड़ पौधे मुझसे कहते हैं कि तुमने तो मुझे सब कुछ दिया। तुम्हीं ने तो मुझे पालपोष कर इतना बड़ा किया। कौन था मेरा जो मुझे पालता। भीषण गर्मी में सूखती मेरी जड़ों में तुमने शीतल जल से सींचा। अपनी संतान की तरह मेरी कताई -छटाई किया। मुझे खाद के रूप में पोषक तत्व दिया। फिर मैं तुझे भूल पाऊंगा क्या। अब तो मेरा वक्त आ गया है, जब मैं तुम्हारे लिए करूँ। तुम कभी हारना नहीं, अरे हाँ ! थकना भी नहीं। छोड़ो कल की बातें। कल का बोझ क्यों उठाए रहते हो। वर्तमान में जीना और उसी को बेहतर बनाना सीखो। जब वर्तमान बनेगा तो भविष्य अपने आप बन जाएगा। कल को किसी ने देखा नहीं है। फिर जिसे तुमने देखा नहीं, जाना नहीं और जिया नहीं उसके बारे में व्यर्थ की चिंता क्यों करते हो। कल तूफ़ान आएगा तो मेरा अस्तित्व मिटा देगा। फिर क्या मैं तूफान की चिंता में वर्तमान को ही मार डालूँ। आज तुम्हें मैं जो दे रहा हूँ वह क्या दे पाऊंगा ? कल की बातें छोड़ो सिर्फ वर्तमान में जियो।

प्रकृति मुझसे बात करना चाहती है। वह कहती है तुमसे बतियाने का खूब मन करता है। देखो, दुनिया कितनी बदल गई है ना, सबको तो बस अपनी ही पड़ी है। कोई दूसरे की सुनता ही नहीं, कोई दूसरे को पढ़ता ही नहीं। कोई दूसरे को जानता ही नहीं। आओ मैं और तुम अपने मन की बातें करते हैं। दोस्त जिंदगी को एक मुस्कुराता हुआ गुलदस्ता बनाओ। जब फुर्सत मिले थोड़े मुस्कुराते जाओ। देखो जिंदगी कितनी आसान और हसीन हो जाएगी। मैं चाहता हूं जब तुम थक जाओ, जब तुम हार जाओ तो मेरी तरफ देख लिया करो। मैं तुम्हारा हौसला और संकल्प हूं। मैं तुम्हारा प्रकल्प हूँ। जीवन जीने का रास्ता भी हूँ। तुम कभी प्रकृति की तरफ देखते ही नहीं। वह संदेश देती है, लेकिन तुम उसे अनसुना कर देते हो। वह तुम्हें संभालती है। जीवन पथ पर तुम्हारे संकल्पों की याद दिलाती है। फिर भी दीवानगी में तुम उसे भूल जाते हो।

देखो ! मैंने अपने संकल्पों को जिया है। कल मैं एक नन्हा सा बीज था आज एक पेड़ हूँ। मेरे भीतर का संकल्प मर जाता तो मैं शायद अंकुरित ही न हो पाता। फिर इतना विशाल वृक्ष नहीं बनता। तुम अपने संकल्प को जिंदा रखो। परिस्थितियां तुम्हारी कितनी भी प्रतिकूल हों, लेकिन तुम उन्हें संघर्षों से अनुकूल बनाओ। जीवन के उल्लास और उमंग को कभी मरने मत देना। मैं तुम्हारे आंगन का वहीं बीज हूँ जिसे तुमने खुद अपने हाथों से धरती में डाला था। कल तक तुम्हें भी इतनी उम्मीद नहीं थी कि मैं इतना बड़ा हो जाऊंगा। बस! कभी हारनामत। जब थक जाना तो मेरे शीतल छांव में आ जाना और थोड़ा सा मुझसे बतिया लेना। फिर आओ इस सावन में शिव के साथ जुड़ों शिव यानी सत्य। सत्य यानी सुंदर और सुंदर यानी प्रकृति। फिर चलते जाना, चलते जाना दूर तलक उस क्षितिज के पार जहां एक नई सुबह एक उम्मीद के और संकल्प लेकर खड़ी है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here