अंध भक्तों की बेरहम मौत, मैं अपनी गोद में उन नासमझों की लाश लिए, काका हाथरसी का शहर “मैं हाथरस हूँ”

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अनिल अनूप

हींग की खुशबू और काका हाथरसी की कविताओं से महकता यह शहर अब चिताओं के धुएं में घिरा हुआ है। मेरा नाम हाथरस है।

हां, सही सुना आपने, मैं वही हाथरस हूं जो हाल ही में 121 मौतों का चश्मदीद बना। तीन दिन बीत चुके हैं, लेकिन यहां की हवा में अब भी दर्द और गम की महक फैली हुई है। जैसे बाढ़ का पानी धीरे-धीरे कम होता है, जैसे आग की लपटें धीरे-धीरे शांत होती हैं, वैसे ही यहां का गम भी धीरे-धीरे कम हो रहा है। लेकिन यह इतनी आसानी से जाने वाला नहीं है।

आज हाथरस शहर रो रहा है। वो शहर जहां की बोली दिल जीत लेती है, जो कृष्ण नगरी और ताज नगरी से सटा हुआ है, अब एक बड़े हादसे का गवाह बना है। तीन दिन पहले हुए इस हादसे ने सबको झकझोर कर रख दिया है, और जो तस्वीरें सामने आ रही हैं, वो दिल दहलाने वाली हैं।

अंधविश्वास के गड्ढे में निर्दोष मासूम गिर रहे थे, मर रहे थे और उनकी चीख पुकार को पूरा देश सुन रहा था। आस्था और धर्म के नाम पर पाखंड देखकर सब शर्मिंदा थे। कहने को यहां सिर्फ 121 मौतें हुई हैं, लेकिन उन 121 परिवारों का क्या हाल है? कोई कफन में झांककर चीख रहा है, कोई दीवार से सटकर किसी के कंधे का सहारा तलाश रहा है। कोई रोना चाहता है, मगर उसके आंसू सूख चुके हैं। कोई एकदम शांत खड़ा है, उसके चेहरे पर कोई भाव नहीं है। एक शख्स दर-ब-दर भटक रहा है, लाशों को खोलकर देख रहा है और मुस्करा रहा है। शायद हर लाश के बाद उसे एक उम्मीद होती होगी कि उसका अपना जिंदा होगा, मगर कुछ देर बाद लाशें खत्म हो जाती हैं और उसका अपना गायब होता है। वो रो रहा है, एक तस्वीर लिए हुए।

जाहिर है दुखियारों का भारत सच्चाई है। धर्मादे, खैरात, राशन, कृपाओं पर जीने वाली भारत भीड़ का सत्य है। इसलिए जितने दुखियारे उतनी भक्ति और घर-घर उससे आस्थाओं के ढली हुई जिंदगी असली भारत का नंबर एक प्राथमिक सत्य है। खासकर हम हिंदुओं में घर-परिवारों, कुनबों, गोत्र, जाति, वर्ण, समाज, धर्म याकि देश का हर बाड़ा, हर सांचा दुख-दर्द, भय-असुरक्षा, भूख तथा भाग्य के रसायनों से बने दिमाग से भेड़ चाल में, घसीटता तथा चलता हुआ है। तभी इस सत्य को नकारना बेईमानी है कि हम सदियों गुलाम रहे हैं तो वजह हिंदुओं की बुद्धिहीन कलियुगी प्रवृत्तियां हैं। 

हाथरस में भीड़, भगदड़ में आश्चर्य का पहलू यह है कि जिस उत्तर प्रदेश में बसपा की राजनीति में दलितों के बीच ‘तिलक, तराजू और तलवार इनको मारो जूते चार’ के नारे लगे थे उन्हें लगाने वाले लोगों के बीच में भोले बाबा के अवतार की अंध श्रद्धा बनी। पहले कांशीराम, मायावती की मूर्तियां बनीं, अंबेडकर भगवान हुए तो अब ‘भोले बाबा’ का अवतार होना बतलाता है कि भारत की भीड़ की नियति वह दुख, वह आस्था, वह झूठ है, जिसे सत्य, बुद्धि, ज्ञान कभी नहीं हरा सकता है।  

सबको चाहिए झूठ। सबको बाबा चाहिए, अवतार चाहिए। देश को चाहिए, हिंदुओं को चाहिए, हिंदू की हर जाति, हर वर्ग को अवतारी बाबा और नेता चाहिए। यूपी में बनारस-गोरखपुर का ब्राह्मण, राजपूत हो या बनिया, कायस्थ या मध्य यूपी के जाट, ओबीसी और जाटव हो सभी जातियों की भीड़ को वे ‘अवतार’ चाहिए, जिनसे दुख दूर हो, शक्तिमान बने। दुख-दर्द, भय, भूख से मुक्ति पाए तो वह सब भी मिले जिसकी चाहना में व्यक्ति की भीड़ की आस्था भेड़ चाल में खड़ी मिलती है। 

यही इक्कीसवीं सदी के ‘न्यू इंडिया’, कथित विकसित भारत का बनता सत्य है। इंतहा है जो हाल के दशकों में हर जाति और समुदाय विशेषों के वे अवतार पैदा हुए हैं, जो लोगों को मूर्ख बना कर आस्था की भीड़ का ऐसा क्रेज बना दे रहे हैं कि भीड़ की व्यवस्थाएं भी चरमरा जाती हैं। सोचें, सूरजपाल जाटव उर्फ ‘भोले बाबा’, ‘नारायण साकार’, ‘साकार हरि’ के जिस जमीन पर कदम पड़े, वे चले उसकी मिट्टी को छूने के लिए लोगों का टूट पड़ना, भगदड़ बनाना और मृत्यु को प्राप्त होने की घटना के मनोविज्ञान पर।

यों यह मनोदशा गुलामी से बनी स्थायी है। लेकिन बीसवीं सदी के उत्तरार्ध से इक्कीसवीं सदी में इसका व्यवसायी रूप लेना नए कारणों जैसे, मार्केटिंग, ब्रांडिंग, सोशल मीडिया और राजनीति की बदौलत भी है। इसमें संघ परिवार का भी अहम रोल है। हिंदुओं में जागृति के नाम पर तमाम तरह के अंधविश्वास बनवाए गए हैं।

याद करें बीसवीं सदी की शुरुआत या उससे पहले की उन्नीसवीं सदी के हिंदू जनजागरण के राममोहन राय, दयानंद सरस्वती, या लाल-बाल-पाल औऱ हिंदू राजनीति के तब के खांटी चेहरे पंडित मदनमोहन मालवीय, सावरकर, लोकमान्य तिलक, लाजपत राय या महर्षि अरविंद जैसे महामना लोगों के हिंदू जनजागरण को।

तब समाज में सुधार, निर्माण, विमर्श, चेतना, सत्संग-उत्सव की कैसी-कैसी पहल थी। जबकि पिछले चालीस वर्षों में संघ परिवार ने क्या बनवाया? विश्व हिंदू परिषद्, भाजपा ने जून 1989 के राम मंदिर निर्माण के प्रस्ताव के साथ भारत की भीड़ में आस्था को उकेरने की कोशिशों में वह किया, जिससे हिंदू मानस और अधिक अंधविश्वासी हुआ। लोग हर तरह से बुद्धिहीन हो कर भीड़ में बदले। असुरक्षा में जीने लगे। भीड़ की भेड़ चाल में कथित अवतारों की मार्केटिंग, ब्रांडिंग और व्यवसायीकरण में बाबाओं ने हिंदू धर्म को बदनाम किया।

किसी ने बहन खो दी, किसी ने मां खो दी, किसी ने भाई खो दिया, तो किसी ने बेटा खो दिया। किसी ने अपना परिवार खो दिया, किसी ने पत्नी तो किसी ने पति खोया। सत्संग में क्या सोचकर घर से निकले होंगे? सत्संग में जाएंगे, कुछ अच्छा ज्ञान मिलेगा, शायद जिंदगी और बेहतर हो जाएगी। मगर सत्संग में मौत मिलेगी, ये सोचकर कोई घर से नहीं निकला होगा। आज 121 घरों में सूनापन है, खालीपन है, जो कभी भरा नहीं जा सकता, जो हमेशा के लिए अनसुलझी पहेली बन गया है। अस्पताल के बाहर पड़ी लाशें दिल दहला रही थीं। आंसुओं से शहर डगमगा रहा था। चीख-पुकार की आवाजें दिल चीर रही थीं।

हाथरस एक मनहूस दिन लेकर रातभर करवटें बदलता रहा। 

स्टेशन, बाजार, चौक, चौराहों पर सिर्फ एक ही चर्चा: सत्संग में कितने लोगों की मौत हो गई। जिन्होंने अपनों को खोया है, वो उस हादसे को भूलने की कोशिश कर रहे हैं, मगर एक नाकाम कोशिश की तरह यादें बार-बार झकझोर रही हैं। एक बच्चा खुद को और मां को संभाल रहा है, एक पिता सीने में पत्थर रखकर पत्नी को समझा रहा है। कोई कह रहा है नियति का खेल है, कोई कह रहा है मौत अटल है। कोई कह रहा है कि इतनी ही लिखी होगी, कोई कह रहा है भगवान की मर्जी है। सब खुद को तसल्ली दे रहे हैं और यही जिंदगी है, आगे बढ़ना पड़ता है।

मैं, हाथरस शहर भी इस गम से बाहर आऊंगा, फिर से गुलजार हो जाऊंगा। ये हादसा भी मेरे मुकद्दर पर था। मुझे भी साक्षी बनना था, इतनी चिताओं का, इतने आंसुओं का, इतनी चीखों का। तीन दिन के बाद भी ग़म गया नहीं है, दर्द अभी भी है। रह-रहकर हादसे की यादें मुझे झकझोर रही हैं। दुकानें खुल रही हैं, मगर खामोशी भी है। लोग काम पर जा रहे हैं, मगर चेहरे पर चिंता भी है। सब कुछ रुका भी नहीं है और भागा भी नहीं है।

बहुत कुछ खो दिया है, कुछ पाना भी है। जिंदगी ने ये जख्म दिया है, तो मरहम भी लाना ही है। हादसे की तपिश से झुलस गया हूं, इस दौर से गुजर जाना भी है। जिंदगी है, सब कुछ सहकर जी जाना भी है।

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