भारत की 18 लोकसभाओं के चुनाव और उनका संक्षिप्त इतिहास, भाग 9

9वीं लोकसभा – 1989 – 1991

वी0पी0 सिंह कांग्रेस के वरिष्ठ नेता थे, जो कि 31 दिसंबर 1984 को राजीव गांधी के मंत्रिमंडल में वित्त मंत्री के रूप में सम्मिलित हुए थे। वह बहुत ही महत्वाकांक्षी व्यक्तित्व थे। प्रारंभ से ही उनकी दृष्टि प्रधानमंत्री के पद पर लगी हुई थी। कांग्रेस में प्रधानमंत्री का पद एक परिवार से अलग किसी दूसरे व्यक्ति को मिल पाना बड़ा कठिन था। इस बात को समझ कर वी0पी0 सिंह ने बड़ी सावधानी से अपना गेम खेलना आरंभ किया। उन्होंने वहां तक पहुंचने के लिए अपनी योजना बनानी प्रारंभ की। अपनी राजनीति को लक्ष्य तक पहुंचाने के लिए वी0पी0 सिंह ने बोफोर्स को ढाल बनाया। उन्होंने बोफोर्स में कथित दलाली के मुद्दे को जोरदार ढंग से उठाना आरम्भ किया। बहुत ही सावधानी और समझदारी के साथ आगे बढ़ते हुए वी0पी0 सिंह ने धीरे-धीरे अपने नेता राजीव गांधी की जड़ें खोदनी आरंभ की। उन्होंने अपने कार्य को इतनी सावधानी से करना आरंभ किया कि अपनी योजना और अपने लक्ष्य की अपने निकटतम व्यक्ति को भी भनक नहीं लगने दी । वह सत्ता की ओर तेजी से दौड़ रहे थे, पर लोग इसे नहीं समझ पा रहे थे। अधिकांश लोगों की सोच थी कि वी0पी0 सिंह शांति से बैठे हैं। वास्तव में राजनीति कहते भी इसी को हैं कि जब आप शांत बैठे हों तो आप लोगों को दौड़ते हुए दिखाई दें और जब आप दौड़ रहे हों तो वह आपको शांत बैठा हुआ अनुभव करें।

कई अन्य नेताओं ने दिया साथ

वी0पी0 सिंह का सीधा निशाना उस समय प्रधानमंत्री का पद पाना था। अभी 10 वर्ष पहले जिस प्रकार 1977 में कांग्रेस को जनता पार्टी ने पटकनी दी थी, उसी प्रकार वी0पी0 सिंह किसी ऐसे मोर्चे की खोज में थे, जो प्रचंड बहुमत प्राप्त राजीव गांधी की कांग्रेस को और सरकार को धराशायी कर सके। इसके लिए उन्होंने बहुत ही सधे हुए कदमों से आगे बढ़ना आरंभ किया। 

विश्वनाथ प्रताप सिंह ने कांग्रेस के वरिष्ठ नेता विद्याचरण शुक्ल, रामधन , सतपाल मलिक के साथ मिलकर 2 अक्टूबर 1987 को एक मोर्चा गठित किया। यह मोर्चा कांग्रेस के विरुद्ध खोला गया था । जो सत्ता की लड़ाई को लोकतांत्रिक ढंग से आगे बढ़ाने का कार्य कर रहा था। कुछ समय पश्चात भाजपा भी इस मोर्चे में सम्मिलित हो गई । जिससे प्रेरित होकर वाम दलों ने भी इसे अपना समर्थन दे दिया । इस प्रकार विश्वनाथ प्रताप सिंह का यह मोर्चा नई शक्ति और ऊर्जा से भर गया। सात दल एक साथ आ गए थे। जिन्होंने 6 अगस्त 1988 को 7 दलों का एक मोर्चा बनाकर कांग्रेस की सरकार को हिलाने का काम करना आरंभ किया । प्रारंभिक अवस्था में तो कोई यह सोच भी नहीं सकता था कि विश्वनाथ प्रताप सिंह का यह मोर्चा कोई नई क्रांति ला सकता है, पर धीरे-धीरे इसने नया परिवेश बनाना आरंभ कर दिया। 11 अक्टूबर 1988 को 7 दलों के मोर्चे ने राष्ट्रीय मोर्चा का स्वरूप प्राप्त कर लिया।

एक बड़ा मुद्दा हाथ लगा

 विश्वनाथ प्रताप सिंह ने इस बात का प्रचार करना आरंभ किया कि उनके पास ऐसी प्रमाणिक सूचना है कि देश के कई लोगों ने विदेशी बैंकों में बड़ी धनराशि जमा करवाई है। उन्होंने इस बात की जांच पड़ताल करने के लिए अमेरिका की एक जासूस संस्था फेयरफैक्स को नियुक्त कर दिया। अभी देश के लोगों का ध्यान देश के वित्त मंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के कार्य की ओर उतना अधिक नहीं गया था पर जब स्वीडन की ओर से 16 अप्रैल 1987 को यह समाचार प्रसारित हुआ कि भारत के साथ बोफोर्स कम्पनी की 410 तोपों का सौदा हुआ था, उसमें 60 करोड़ की राशि कमीशन के तौर पर दी गई थी तो विश्वनाथ प्रताप सिंह ने इसे एक महत्वपूर्ण मुद्दे के रूप में उछालना आरंभ कर दिया। देखते ही देखते तोपों की दलाली का यह मुद्दा देश की संसद से सड़क तक उछलने लगा। समाचार पत्र पत्रिकाओं में इस पर बड़े समीक्षात्मक लेख लिखे जाने लगे। जिससे देश के राजनीतिक परिदृश्य ने नई अंगड़ाई लेनी आरंभ की ।                    राजनीतिक लोगों के साथ-साथ देश के बुद्धिजीवियों को विचार विमर्श का एक नया मुद्दा हाथ लग गया। जहां भी पढ़े लिखे चार लोग बैठे देखे जाते थे वहीं पर यह मुद्दा चर्चा का विषय बन गया था। 

वी0पी0 सिंह प्रचार के लिए मुद्दा बनाने की अपनी पहली लड़ाई को जीत चुके थे। राजनीति के ‘भद्रपुरुष’ राजीव गांधी इन सारी बातों को उस समय गंभीरता से नहीं ले रहे थे या कहिए कि उनकी दून टीम उन्हें जिस प्रकार की सलाह दे रही थी, उसके चलते वे इस ओर से आंखें मूंदे बैठे रहे। मुद्दा संसद में उछल रहा था और सड़क पर दौड़ रहा था जबकि कांग्रेस का नेता गांधी के तीनों बंदरों का समरूप बनकर आंखें, मुंह और कान बंद किए बैठा था। ऐसी परिस्थितियों में लोग तेजी से उस नेता का साथ छोड़ते जा रहे थे जिसे उन्होंने अभी कुछ समय पहले ही प्रचंड बहुमत देकर संसद भेजा था।

वी0पी0 सिंह की दूसरी जीत

 इससे जनता को यह स्पष्ट होने लगा कि 60 करोड़ की दलाली में राजीव गांधी का हाथ है। विश्वनाथ प्रताप सिंह की यह दूसरी जीत थी। वह राजा मांडा के नाम से उस समय जाने जाते थे। स्वाभाविक है कि उन्हें राजनीति घुट्टी में मिली थी। वह धीरे-धीरे अपना शिकंजा कसते जा रहे थे और कांग्रेस के राजीव गांधी उस शिकंजे में असहाय शिकार की तरह फंसते जा रहे थे।

कसते हुए शिकंजी को देखकर वह छंटपटाने लगे थे, पर इससे बचने या निकलने का उन्हें कोई रास्ता नहीं मिल रहा था। ऐसी अवस्था में फंसे राजीव को अकेला खड़ा कर देना विश्वनाथ प्रताप सिंह की चाल का एक हिस्सा था। जिसे उनकी अगली जीत भी कहा जा सकता है।
इस प्रकार जब 1989 के 9 वीं लोकसभा के चुनाव घोषित हुए तो उस समय राजीव गांधी एक असहाय प्राणी के रूप में चुनाव मैदान में उतरे । उस समय का अधिकांश विपक्ष विश्वनाथ प्रताप सिंह के साथ आ जुड़ा था। वे सभी 1984 की मार को अभी भूले नहीं थे। प्रचंड बहुमत से सत्ता में बैठी कांग्रेस को हराना उनका सबका सामूहिक लक्ष्य बन चुका था। जिसे प्राप्त करना उनके लिए आवश्यक था। क्योंकि इसी से उनका राजनीतिक अस्तित्व बच सकता था। अब देश की राजनीति पूर्णतया हथखंडों में फंस चुकी थी। सत्ता प्राप्ति के लिए जिस प्रकार मुगलिया दरबारों में षड़यंत्र रचे जाते थे कुछ वैसा ही दृश्य इस समय देश की राजनीति का बन चुका था। झूठ को विमर्श बनाकर झूठ को परोसते हुए देश के राजनीतिज्ञ यह स्पष्ट कर रहे थे कि इस समय देश में राजनेताओं का अकाल पड़ चुका है। कुछ भी हो पर इसमें राजनीति को तो मजा आ ही रहा था। समाचार पत्र पत्रिकाओं वालों को भी चटकारेदार समाचार मिल रहे थे।

ऑडिटर जनरल की भूमिका

प्राथमिक जाँच-पड़ताल से यह सिद्ध हो गया कि राजीव गांधी के विरुद्ध जो आरोप लगाया गया था उसमें कुछ ना कुछ सच्चाई है। ऑडिटर जनरल ने तोपों की विश्वसनीयता को संदेह के घेरे में लाकर विपक्ष को और भी अधिक आक्रामक कर दिया। इस प्रकार की परिस्थितियों में देश के मतदाताओं को लगा कि कहीं ना कहीं दाल में काला अवश्य है। विपक्ष ने भरपूर शोर मचाकर झूठ को इतना अधिक महिमामंडित किया कि सारी दाल ही काली लगने लगी।

अपने विरुद्ध बनते हुए माहौल को देखकर राजीव गांधी ने बहुत देर से यह निर्णय लिया कि उन्होंने विश्वनाथ प्रताप सिंह को पार्टी से निष्कासित किया। जब उन्होंने विश्वनाथ प्रताप सिंह के विरुद्ध यह कार्यवाही की तब तक वह ‘हीरो’ बन चुके थे। जब तक इस कार्यवाही का कुछ प्रभाव पड़ता, तब तक राजीव गांधी जनता की अदालत में ‘चोर’ बन चुके थे। जब समय पर कार्यवाही नहीं होती है तो परिणाम इसी प्रकार के आते हैं। अब विश्वनाथ प्रताप सिंह मतदाताओं की दृष्टि में राजा बन चुके थे । इसलिए देश के मतदाताओं ने उन्हें ‘राजा’ बनाने का ही निर्णय ले लिया। देश का जनमानस विश्वनाथ प्रताप सिंह के साथ जुड़ने लगा और उनके इस दावे पर विश्वास करने लगा कि जब वह सत्ता में आएंगे तो वह दलाली लेने वाले लोगों का खुलासा कर देंगे।

वी0पी0 सिंह बन गए हीरो

लोग विश्वनाथ प्रताप सिंह की बातों पर विश्वास करते जा रहे थे। वह उत्तर प्रदेश से आते थे। उनकी शांत, शालीन और गंभीर मुख मुद्रा को देखकर देश का युवा उनके साथ जुड़ता जा रहा था। राजीव गांधी अपनी बात को लोगों के सामने सही ढंग से रख नहीं पा रहे थे । जो लोग उनकी टीम में उस समय जुड़े हुए थे, वह सभी राजनीतिक रूप से अपरिपक्व ही सिद्ध हो रहे थे। इसके उपरांत भी राजीव गांधी उन्हीं का भरोसा करते जा रहे थे।

देश के युवा वर्ग को उस समय कुछ ऐसा लगा था कि जैसे नई क्रांति होने जा रही है। उन्हें ऐसा आभास हो रहा था कि पहली बार कोई व्यक्ति सरकार के विरुद्ध उठने का साहस कर रहा है।
विश्वनाथ प्रताप सिंह जिस दौर में सरकार के विरुद्ध बगावत का झंडा लेकर काम करने की नई राह पर चले थे, उस समय शासन में बैठे लोगों के विरुद्ध आवाज उठाना बहुत बड़ी बात थी। जनधारण थी कि जनसाधारण यदि कुछ करता है तो उसके लिए कानून और जेल है, पर शासन में बैठे लोग चाहे कुछ भी कर लें , उनके विरुद्ध ना कोई आवाज उठ सकती है और ना ही कोई कानून कुछ कर सकता है। इस प्रकार विश्वनाथ प्रताप सिंह एक मिथक को तोड़ रहे थे।
विश्वनाथ प्रताप सिंह ने भी उस समय नए छात्रों को साथ ले लिया था। उनके साथ टोलियां बनाकर वह जनप्राचार के लिए निकलते थे। जनसभाओं में भाषण देते थे। लोग उन्हें सुनने के लिए आने लगे। उनकी लोकप्रियता दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही थी। विश्वनाथ प्रताप सिंह ने एक बहुत ही साधारण व्यक्ति की तरह लोगों के बीच जाना आरंभ किया। उन्होंने तनिक भी यह आभास नहीं होने दिया कि वह किसी प्रकार के शाही अंदाज में विश्वास रखते हैं। यदि उन्हें कहीं मोटरसाइकिल पर सवारी करनी हुई तो वह युवाओं के साथ ऐसा करने में भी पीछे नहीं हटे।

शाहबानो प्रकरण और राजीव गांधी

राजीव गांधी के बहुत निकट रहे आरिफ मोहम्मद खान मुस्लिम समाज में एक बहुत ही साफ सुथरी छवि रखने वाले राष्ट्रवादी विचारों के नेता थे। वह राजीव गांधी के साथ पूरी निष्ठा के साथ खड़े हुए थे, पर जब शाहबानो प्रकरण आया और राजीव गांधी ने मुस्लिम तुष्टिकरण करते हुए शाहबानो के साथ अन्याय किया तो आरिफ़ मोहम्मद खान भी राजीव गांधी के विरोधी हो गए। विश्वनाथ प्रताप सिंह ने आरिफ मोहम्मद मोहम्मद खान को तुरंत लपक लिया। आरिफ मोहम्मद खान नहीं चाहते थे कि इस्लाम जड़तावादी दृष्टिकोण अपनाते हुए सदा सदा उसी में उलझा रहे। उनकी मान्यता थी कि देश – काल – परिस्थिति के अनुसार मानव समाज को आगे बढ़ना चाहिए। कोई भी जड़तावादी समाज संसार की प्रगति के साथ जुड़कर आगे नहीं चल सकता। उनकी मान्यता थी कि मुस्लिम महिलाओं को वे सब अधिकार प्राप्त होने चाहिए जो आधुनिक युग की महिला के लिए समय की आवश्यकता हैं। इसके विपरीत मुस्लिम कट्टरपंथी यह मानकर चल रहे थे कि उनके पर्सनल लॉ में किसी प्रकार का हस्तक्षेप सरकारी स्तर पर नहीं होना चाहिए।

नौवीं लोकसभा के चुनाव

 ऐसी परिस्थितियों में नौवीं लोकसभा के चुनाव संपन्न होने जा रहे थे। देश नई करवट लेता हुआ दिखाई दे रहा था। 531 लोकसभा सीटों के लिए चुनावों की घोषणा की गई। नई लोकसभा के लिए 24, 26 नवंबर 1989 को चुनाव संपन्न हुए।

चुनाव परिणाम आए तो सत्ताधारी पार्टी कांग्रेस को बहुत बड़ा झटका लगा। 415 सदस्यों की कांग्रेस पार्टी लोकसभा में 195 सीटों पर आकर सिमट गई । यद्यपि इस झटके के उपरांत भी कांग्रेस उस समय सबसे बड़ी पार्टी थी। परंतु राजीव गांधी ने लोकतांत्रिक मर्यादाओं का पालन करते हुए जनादेश को बड़ी विनम्रता से स्वीकार किया। उन्होंने प्रधानमंत्री पद से अपना त्यागपत्र देकर नई सरकार के गठन के लिए मार्ग प्रशस्त कर दिया। उन्होंने बड़ी विनम्रता से कह दिया कि हम विपक्ष में बैठना अच्छा मानेंगे। ऐसी स्थिति में जनता दल के लिए सरकार बनाने का रास्ता सुलभ हो गया। तब विश्वनाथ प्रताप सिंह ने जनता दल के नेता के रूप में सरकार बनाने की पहल की। जनता दल को उस समय 142 सीटें प्राप्त हुई थीं। यद्यपि यह बहुत अधिक सीटें नहीं थीं। जितना शोर सुना जा रहा था उसके अनुसार भी विश्वनाथ प्रताप सिंह को पूरे देश में जन समर्थन प्राप्त नहीं हुआ था। परंतु खंडित जनादेश की स्थिति में खंडित नेताओं को ही सरकार बनाने का लोकतंत्र में अवसर उपलब्ध हो जाया करता है। ऐसा भारत में कई बार हुआ है। कांग्रेस को इन लोकसभा चुनावों में 207 सीटों का नुकसान झेलना पड़ा।
भारतीय जनता पार्टी को इस चुनाव में 89, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ( मार्क्सवादी ) को 34, भाकपा ( सी0पी0आई0) को 12 ए0आइ0ए0डी0एम0के0 को 11, शिरोमणि अकाली दल को 7, नेशनल कांफ्रेंस को 3 सीटें प्राप्त हुईं। इसी प्रकार कुछ अन्य राजनीतिक दल थे जिन्होंने जनता दल के साथ अपना समर्थन देने की घोषणा की। इस प्रकार कांग्रेस से समर्थन लिए बिना विश्वनाथ प्रताप सिंह के पास सरकार बनाने के लिए सांसदों की पर्याप्त संख्या हो गई। सिरों की गिनती के खेल में विश्वनाथ प्रताप सिंह विजयी हो गए। इन सिरों की गिनती से देश व समाज को वह किस प्रकार जोड़कर रख पाएंगे ? यह अभी देखना शेष था।

विश्वनाथ प्रताप सिंह बने देश के प्रधानमंत्री

विश्वनाथ प्रताप सिंह ने 2 दिसंबर 1989 को देश के नए प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ग्रहण की। वे 10 नवंबर 1990 तक प्रधानमंत्री के रूप में कार्य करते रहे। विश्वनाथ प्रताप सिंह ने अपने राजनीतिक स्वार्थ की पूर्ति के लिए मंडल कमीशन की रिपोर्ट को लागू कर दिया। इसके बाद देश में आग लग गई। उनकी इस घोषणा का बड़ा तीखा विरोध हुआ। लोगों ने सड़कों पर उतरकर मंडल कमीशन की रिपोर्ट का विरोध करना आरंभ किया। छात्रों ने आत्मदाह किये। फलस्वरुप देश अस्थिरता और अराजकता की गिरफ्त में आ गया। भारतीय जनता पार्टी के नेता लालकृष्ण आडवाणी ने मंडल कमीशन के लागू होने पर अपने राजनीतिक स्वार्थ की पूर्ति के लिए कमंडल की राजनीति को अपनाकर राम रथ यात्रा निकालनी आरंभ कर दी। इस प्रकार सत्ता में बैठे दो बड़े राजनीतिक दल अपने राजनीतिक स्वार्थ की पूर्ति के लिए देशहित को भूलकर दलहित पर उतर आए। जिसका परिणाम यह हुआ कि विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार गिर गई। विश्वनाथ प्रताप सिंह ने 1977 को दोहराने का प्रयास किया था, जब केंद्र में पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार बनी थी। इसे उनका दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि उनकी अपनी जनता दल सरकार की स्थिति जनता पार्टी सरकार से भी बुरी हुई। सरकार गिरी तो कांग्रेस ने इस बार भी वही दांव खेल दिया जो मोरारजी देसाई की सरकार गिराने के बाद कांग्रेस की नेता इंदिरा गांधी ने खेला था। इस बार राजीव गांधी ने दूसरा चौधरी चरण सिंह चंद्रशेखर को घोषित कर दिया। कांग्रेस के नेता राजीव गांधी ने उन्हें बाहर से समर्थन देकर देश का प्रधानमंत्री बनवा दिया। चंद्र शेखर 10 नवंबर 1990 से 21 जून 1991 तक प्रधान मंत्री रहे।

नौवीं लोकसभा के पदाधिकारी

नौवीं लोकसभा के लोकसभाध्यक्ष रबी रे 19 दिसंबर 1989 से 9 जुलाई 1991 तक रहे। उपाध्यक्ष के रूप में शिवराज पाटिल ने 19 मार्च 1990 से 13 मार्च 1991 तक कार्य किया। इस लोकसभा के प्रधान सचिव सुभाष सी कश्यप 31 दिसंबर 1983 से 20 अगस्त 1990 तक कार्य करते रहे जबकि के0सी0 रस्तोगी 10 सितंबर 1990 से 31 दिसंबर 1991 तक इस पद पर कार्यरत रहे। उस समय देश के राष्ट्रपति आर0 वेंकटरमन थे। उन्होंने अपने कार्यकाल में विश्वनाथ प्रताप सिंह, चंद्रशेखर और उनके पश्चात पी0वी0 नरसिम्हाराव को प्रधानमंत्री के रूप में शपथ दिलवाई थी। आर.वी.एस. पेरी शास्त्री इस समय देश के मुख्य चुनाव आयुक्त थे। जिनका कार्यकाल 1 जनवरी 1986 से 25 नवंबर 1990 तक रहा। इस लोकसभा चुनाव पर कुल 152.2 करोड रुपए सरकारी स्तर पर खर्च हुआ।
स्वतंत्र भारत के इतिहास में यह पहली बार था जब किसी राजनीतिक दल ने लोकसभा में बिना बहुमत के भी सरकार बनाने का दावा किया और सरकार बनाई। ज्ञात रहे कि इससे पहले 1977 में जब जनता पार्टी की सरकार बनी थी तो उस समय जनता पार्टी और उसके सहयोगियों को लोकसभा में स्पष्ट बहुमत प्राप्त हुआ था। बिना बहुमत की अनेक दलों की सरकार को चलाना विश्वनाथ प्रताप सिंह के लिए शपथ ग्रहण वाले दिन से ही असंभव दिखाई दे रहा था। फिर भी जैसे तैसे उन्होंने इस सरकार को लगभग 1 वर्ष चलाया। स्पष्ट है कि जब सरकार के बोझ को लेकर एक-एक दिन आगे बढ़ना कठिन हो तो उस समय ना तो सफर आसानी से कटता है और ना ही कोई उल्लेखनीय कार्य हो पाते हैं।
इतना अवश्य है कि विश्वनाथ प्रताप सिंह के इस संक्षिप्त से काल में भारतीय जनता पार्टी को नई ऊर्जा प्राप्त हुई और उसने राम जन्म भूमि के प्रकरण को राष्ट्रीय मुद्दा बनाने की तैयारी आरंभ कर दी।
देश की नौवीं लोकसभा के चुनाव के समय आर.वी.एस. पेरी शास्त्री (1 जनवरी 1986 से 25 नवंबर 1990) देश के मुख्य चुनाव आयुक्त थे।

डॉ राकेश कुमार आर्य

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