भारत की 18 लोकसभाओं के चुनाव और उनका संक्षिप्त इतिहास, भाग 14

14वीं लोकसभा – 2004 – 2009

14वीं लोकसभा के चुनाव 2004 में संपन्न हुए। 20 अप्रैल 2004 से 10 मई 2004 तक चार चरणों में यह चुनाव संपन्न हुआ था। देश के मतदाताओं ने प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में अनास्था व्यक्त की और संक्रमण काल से गुजरते हुए देश ने सत्ता एक बार फिर कांग्रेस के हाथों में दे दी। यद्यपि इस बार भी खंडित जनादेश मिला और स्पष्ट बहुमत कांग्रेस को नहीं मिल पाया। लोकसभा की 545 सीटों के लिए चुनाव हुआ। इस चुनाव में पहली बार इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन का प्रयोग किया गया। देश के सभी मतदान स्थलों पर इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन पहुंचाई गईं । आंकड़ों के अनुसार लगभग 10 लाख इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन मतदान स्थलों पर भेजी गई। लोकसभा के इस चुनाव में कांग्रेस को अपने बल पर 150 सीटों पर संतोष करना पड़ा, जबकि भाजपा को 130 सीटों तक जनता ने समेट दिया। इस प्रकार स्पष्ट हो गया कि त्रिशंकु संसद होने के कारण किसी भी दल को लोकसभा में स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं हुआ था।

14 वीं लोकसभा में दलों की स्थिति

इस चुनाव में विभिन्न प्रमुख दलों को इस प्रकार सीटें प्राप्त हुई :- भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (कांग्रेस)150, भारतीय जनता पार्टी (भाजपा)130, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) (भाकपा) 43, समाजवादी पार्टी (सपा)38, राष्ट्रीय जनता दल (राजद)24, बहुजन समाज पार्टी (बसपा)18, द्रविड़ मुन्नेत्र कड़गम (दमक)16, शिव सेना12, बीजू जनता दल (बीजद)11, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकपा)11, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा)10, शिरोमणि अकाली दल (शिअद)8, जनता दल (युनाईटेड) (जदयू))7, निर्दलीय (नि)6, पट्टाली मक्कल कच्ची (पमक)6, झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो)5, तेलंगाना राष्ट्र समीति (टीआरएस)5, लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा)4 इत्यादि।
लोकसभा में विभिन्न दलों को जिस प्रकार थोड़ी-थोड़ी सीटों की प्राप्ति हुई उससे यह स्पष्ट था कि जनता ने स्पष्ट जनादेश न देकर खंडित जनादेश दिया था। यद्यपि यह स्पष्ट था कि भारतीय जनता पार्टी को लोगों ने सत्ता से दूर कर दिया था।

14 वीं लोकसभा के पदाधिकारी गण

14 वीं लोकसभा के अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी थे। यद्यपि श्री चटर्जी के पिताजी हिंदू महासभा से जुड़े हुए थे, जबकि सोमनाथ चटर्जी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े हुए थे। लोकसभा के उपाध्यक्ष के रूप में चरणजीत सिंह अटवाल (अकाली दल) ने कार्य किया। सदन के नेता के रूप में कांग्रेस ने अपने बहुत ही अनुभवी राजनेता प्रणब मुखर्जी को आगे किया। सचमुच श्री मुखर्जी बहुत ही सुलझे हुए और गंभीर प्रकृति के राजनेता थे। बाद में वह देश के राष्ट्रपति भी बने। लोकसभा के सचिव के रूप में पी0डी0टी0 आचार्य ने कार्य किया। श्री टी. एस. कृष्णमुर्ति (8 फरवरी 2004 से 15 मई 2005) इस समय देश के मुख्य निर्वाचन आयुक्त थे।

हुआ यू0पी0ए0 का गठन

 जब किसी भी पार्टी को स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं हुआ तो उस समय कांग्रेस के नेतृत्व में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन अर्थात यू0पी0ए0 का गठन किया गया। इस गठबंधन के नेता के रूप में कांग्रेस की नेता सोनिया गांधी ने अपने सबसे विश्वसनीय व्यक्ति और पी0वी0 नरसिम्हाराव के समय में देश के वित्त मंत्री रहे डॉ. मनमोहन सिंह का नाम प्रस्तावित किया। डॉ मनमोहन सिंह बहुत ही शांत , शालीन और गंभीर स्वभाव के राजनीतिज्ञ रहे हैं। 

राजनीति में विनम्र और अहंकारशून्य होना किसी व्यक्ति की विलक्षणता ही कही जा सकती है। विशेष रूप से तब जब चारों ओर अहंकारी, दंभी और पाखंडी लोगों का वर्चस्व दिखाई देता हो। डॉ मनमोहन सिंह की अहंकारशून्यता और विनम्रता जहां प्रशंसनीय है, वहीं उनके लिए यह भी कहा जा सकता है कि वह इन दोनों गुणों को अपनाकर अति कर गए। अपने इन दोनों गुणों के कारण ही वह अपयश के भागी बने।

प्रधानमंत्री पद की स्थिति

  14 वीं लोकसभा के लिए मिले खंडित जनादेश से बनी परिस्थितियों की उपज डॉ मनमोहन सिंह थे। उन्हें देश की जनता ने नहीं चुना था। ना ही किसी गठबंधन ने चुना था। बस, गठबंधन के सबसे बड़े दल की सबसे बड़ी नेता ने उनके ऊपर हाथ रख दिया था। यही उनका सौभाग्य बन गया। इसे कहने के लिए आप लोकतंत्र कह सकते हैं, जिसमें मनमोहन सिंह जैसे व्यक्ति को भी देश का प्रधानमंत्री बनने का अवसर मिल गया। पर सचमुच में यह लोकतंत्र नहीं है। लोकतंत्र योग्यतम की खोज करता है और उसे प्रस्तुत करने में अपना सौभाग्य समझता है। यहां योग्यतम की खोज नहीं हुई या कहिए कि जिसे योग्यतम माना गया था, उसकी योग्यता का आधार यह था कि वह देश के सबसे पुराने राजनीतिक दल की सबसे बड़ी नेता के वफादार बने रहेंगे। इस प्रकार वफादारी के बदले में प्रधानमंत्री पद नीलाम कर दिया गया था। मुगलिया दरबार की तरह राजमाता ने पर्दे के पीछे से बैठकर हुकूमत की बागडोर अपने हाथों में ले ली थी। नीलामी की कुछ शर्तें थीं। जिनमें सबसे बड़ी शर्त यह थी कि डॉ मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बने रहकर भी प्रधानमंत्री होने का ना तो आभास दिलाना है और जब उन्हें प्रधानमंत्री रहते हुए भी बड़ी नेता के द्वारा प्रधानमंत्री न माना जाए तो इस पर बुरा भी नहीं मानना है। डॉ मनमोहन सिंह ने इन सब शर्तों को सहर्ष स्वीकार कर लिया।
 डॉ मनमोहन सिंह को कांग्रेस के नेहरू गांधी परिवार ने अपनी कठपुतली बनाकर रखा। जिस समय वह देश के प्रधानमंत्री थे उस समय 'सुपर पी0एम0' के रूप में सोनिया गांधी पर विपक्ष के हमले तो होते ही थे, उन पर इसी प्रकार के लेख भी लिखे जाते थे। सोनिया गांधी के बारे में यह भी कहा जाता था कि वह ऐसी गोपनीय फाइलों को भी अपने पास मंगा लेती थीं जिन्हें प्रधानमंत्री के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं देख सकता था । इस प्रकार सोनिया गांधी का सरकारी कार्यों में सीधा हस्तक्षेप था। इसे किसी भी दृष्टिकोण से लोकतांत्रिक नहीं कहा जा सकता। 14 वीं लोकसभा ने इस प्रकार के नए प्रयोग को होते हुए देखा, जब देश के प्रधानमंत्री को असहाय बना दिया गया और देश में एक सुपर पी0एम0 स्थिति विकसित कर ली गई। ऐसा केवल एक परिवार की तुष्टि के लिए किया गया। लोकतंत्र का दंभ भरने वाली कांग्रेस के सभी बड़े नेता इस प्रकार की स्थिति पर पूर्णतया मौन साध गए।

भाजपा को किया गया सत्ता से दूर

14 वीं लोकसभा के चुनाव के परिणाम आने के पश्चात बने यू0पी0ए0 गठबंधन को 218 सीटों पर सफलता प्राप्त हुई थी । इसके पश्चात कुछ अन्य दलों ने भी भाजपा को सत्ता से दूर रखने के उद्देश्य से प्रेरित होकर यू0पी0ए0 गठबंधन में सम्मिलित होना अपनी राजनीतिक अवसरवादिता के दृष्टिकोण से उचित माना। इनमें 59 सांसदों वाला वाम मोर्चा, 39 सांसदों वाली समाजवादी पार्टी और 19 सांसदों वाली बहुजन समाज पार्टी का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इन सभी राजनीतिक दलों ने अपने मतभेद भुलाकर कांग्रेस को अपना समर्थन देना स्वीकार किया। इसके पीछे एक ही उद्देश्य था कि जैसे भी हो भाजपा के राष्ट्रवादी एजेंडा को कुचल देना ही उचित होगा। वामपंथी दलों का लक्ष्य था कि जैसे भी हो राष्ट्रवादी विचारधारा के दलों और गठबंधन को सत्ता केंद्र से दूर किया जाए। वास्तव में अपने अस्तित्व के लिए वामपंथी किसी भी स्थिति तक जाने के लिए तैयार थे।

लोकतंत्र की अनैतिकता की उपज था यू0पी0ए0

संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन का अस्तित्व में आना भारतीय राजनीति की अनैतिकता को प्रकट करता है। इस प्रकार का गठबंधन राजनीति के धर्म को कलंकित करता है । पार्टी चाहे कोई भी हो , पर उसको जनादेश को लेते समय अपने मतदाताओं को यह विश्वास करना चाहिए कि वह आपके दिए गए मत के साथ कभी विश्वासघात नहीं करेगी। चुनाव परिणाम आने के पश्चात यदि ऐसे दल परस्पर हाथ मिलाते हैं, जिन्होंने चुनाव प्रचार के दौरान एक दूसरे का विरोध किया था तो यह राजनीतिक बेईमानी के साथ-साथ एक अनैतिक और असंवैधानिक आचरण भी है। राजनीति सबसे बड़ा धर्म मानी गई है। इस दृष्टिकोण से इस प्रकार के गठबंधन बनाना एक अधर्म भी है। राजनीति में सत्ता का लोभ बहुत बड़ा लोभ माना जाता है। जिस किसी नेता को मनचाही कुर्सी ना मिली हो, उसे यदि सपने में भी सत्ता की कुर्सी मिल रही हो तो वह उसे प्राप्त करने के लिए प्रत्येक प्रकार का अनैतिक आचरण करने के लिए तत्पर हो जाता है । अवसर को हाथ से जाने देना आज की राजनीति की मर्यादा से बाहर हो गया है। आज की राजनीति अवसर की प्रतीक्षा एक शिकारी की भांति करती रहती है कि कब शिकार आए और कब वह उसे मारकर अपना पेट भर ले।

आननफानन में जिस प्रकार संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन का निर्माण सत्ता की प्राप्ति के लिए किया गया, उस गठबंधन को और तत्कालीन राजनीतिज्ञों की सोच को कुछ इसी दृष्टिकोण से देखने की आवश्यकता है।

डॉ मनमोहन सिंह की विशेषता

 इस सबके उपरांत भी डॉ मनमोहन सिंह ने प्रधानमंत्री के रूप में अनेक दलों के विभिन्न सत्ता स्वार्थों को बड़े संयम और धैर्य के साथ ढोते हुए देश को आगे लेकर चलने का काम करना आरंभ किया। माना कि वह राजनीति में बहुत बड़े कुशल वक्ता नहीं थे, वह बहुत बड़ी डींगें मारने के अभ्यासी भी नहीं थे, बहुत बड़ा जनबल उनके पीछे नहीं था, वह बाहुबली और धनबली भी नही थे, उनकी पृष्ठभूमि भी राजनीति के किसी जाने-माने परिवार से जुड़ी हुई नहीं थी, पर इस सबके उपरांत वह बुद्धिबली थे। वह जाने-माने अर्थशास्त्री थे। रिजर्व बैंक आफ इंडिया के गवर्नर रहे थे। उन्हें काम करने की अच्छी समझ थी। उनकी देशभक्ति पर किसी प्रकार का संदेह नहीं किया सकता था। यही कारण था कि वह चाहे जैसी स्थिति में प्रधानमंत्री बने हों और चाहे उनके जैसी भी बाध्यताएं रही हों, उन्होंने समर्पित होकर देश के लिए काम किया। यद्यपि उनके इस समर्पण के बीच उनकी पार्टी की बड़ी नेता खड़ी हुई थीं। 

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपनी बुद्धिमानी का परिचय देते हुए समय आने पर सहज रूप में अपने आपको देश की सेवा के लिए समर्पित कर दिया। अपने कार्यकाल में उनसे जितना बन पड़ा, देश के लिए उत्तम करने का प्रयास किया। यद्यपि इसके लिए उन्हें अपनी पार्टी के सर्वेसर्वा नेताओं के कई प्रकार के अपमानों को भी झेलना पड़ा । पर वह संयम और धैर्य के साथ चुपचाप एक नौकरशाह की भांति कार्य करते रहे। उनका मितभाषी होना ही उनकी सबसे बड़ी दुर्बलता थी और यही उनकी सबसे बड़ी शक्ति भी थी। कई लोगों को उनका मितभाषी होना चुभता था। वे चाहते थे कि डॉ मनमोहन सिंह बोलें, जिससे कि उनके बोलने पर कुछ विवाद खड़े हों। कुछ ऐसे भी लोग थे जो उनके ना बोलने से ही खुश रहते थे। जिनमें कांग्रेस की नेता सोनिया गांधी प्रथम स्थान पर थीं। सोनिया डॉ मनमोहन सिंह को गूंगी गुड़िया के रूप में ही देखना पसंद करती थीं। डॉ मनमोहन सिंह अपनी कमजोरी को भली प्रकार जानते थे, उन्हें पता था कि वह किस परिवार की कृपा से प्रधानमंत्री बने हैं ? वह यह भी जानते थे कि उन्हें गूंगी गुड़िया की तरह बर्ताव करना है, क्योंकि इसीलिए उन्हें प्रधानमंत्री बनाया गया है।

गठबंधन ने बनाया अपना सांझा कार्यक्रम

यू0पी0ए0 जनता पार्टी , राष्ट्रीय मोर्चा और भाजपा प्रणीत एनडीए जैसे पूर्व के उन गठबंधनों की भांति अस्तित्व में आया था। जिन्होंने अबसे पूर्व कुछ समय के लिए शासन करने में सफलता प्राप्त की थी। इस गठबंधन ने अपना सांझा न्यूनतम कार्यक्रम तैयार किया और अटल जी की भांति उस पर कार्य आरंभ कर दिया। न्यूनतम सांझा कार्यक्रम को तैयार करने में 59 सदस्यीय एक टीम गठित की गई। जिसमें वाम मोर्चे के ज्योति बसु और हरकिशन सिंह सुरजीत की विशेष भूमिका रही। कम्युनिस्ट पार्टियों के साथ समन्वय बनाकर आगे चलने में कांग्रेस ने नेहरू काल से ही कोई संकोच नहीं किया था। यही कारण है कि कांग्रेस की नीतियों पर वामपंथियों की नीतियों का प्रभाव नेहरू काल से ही दिखाई देने लगा था। 
संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन जब अस्तित्व में आया तो उसने भी अपने आप को कम्युनिस्ट दलों के साथ समन्वित करने में किसी प्रकार का संकोच नहीं किया। इसे उस समय केंद्र की कांग्रेस वामपंथी नीतियों का प्रतीक माना गया। वास्तव में कांग्रेस और कम्युनिस्ट दल दोनों ही भारत की सांस्कृतिक विरासत के बारे में एक जैसा नकारात्मक दृष्टिकोण रखते हैं । हिंदू समाज को ये दोनों ही पिछड़ी मानसिकता का मानते रहे हैं। यही कारण है कि इन दोनों को एक साथ आने में किसी प्रकार का अवरोध बाधक नहीं बनता। इनके आलोचकों की दृष्टि में इनका न्यूनतम सांझा कार्यक्रम 'सनातन मिटाओ' रहा है।

वामपंथी दलों ने लिया अपना समर्थन वापस

22 जुलाई 2008 को, भारत-संयुक्त राज्य अमेरिका नागरिक परमाणु समझौते के विरोध में वाम मोर्चे द्वारा अपना समर्थन वापस लेने पर प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह ने विश्वास मत प्राप्त करने के लिए संसद में प्रस्ताव रखा। जिस पर 256 के मुकाबले 275 मत लेकर उनकी सरकार उस समय संकट से बाहर आ गई। तब सपा के सांसद अतीक अहमद को डॉ मनमोहन सिंह की सरकार ने जेल से पैरोल पर निकाला था। डॉ मनमोहन सिंह और उनकी पार्टी कांग्रेस को अपेक्षा थी कि अतीक अहमद का मूल्यवान वोट उन्हें ही प्राप्त होगा। सपा ने भी अपने सभी सांसदों को उस समय व्हिप जारी कर दिया था। पर अतीक अहमद ने कांग्रेस को धोखा देते हुए अपना मत विश्वास प्रस्ताव के विरोध में दिया। कुछ भी हो पर वाम दलों ने जिस प्रकार कांग्रेस के लिए उस समय एक चुनौती खड़ी की थी, उस चुनौती पर सफलतापूर्वक कांग्रेस ने सफलता प्राप्त की। इस बात से यह स्पष्ट हो गया कि राष्ट्रीय सुरक्षा तक के मामलों में भी वामपंथी देश और देश की सरकार के साथ खड़े होने में कष्ट अनुभव कर रहे थे। उस संकट के समय कांग्रेस के लिए समाजवादी पार्टी के नेता अमर सिंह ने विशेष प्रयास किए थे। उन्होंने सांसदों को तत्कालीन सरकार के समर्थन में मत देने का ‘जुगाड़’ परदे के पीछे रहकर किया था।

डॉ मनमोहन सिंह की आर्थिक नीतियों के लाभ

डॉ मनमोहन सिंह संसार के जाने-माने अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री थे। उन्होंने शांत भाव से देश के लिए काम करना आरंभ किया। अर्थशास्त्र की दुनिया में रहकर उन्होंने कई अनुभव प्राप्त किए थे। उन अनुभवों को उन्होंने प्रधानमंत्री रहते हुए देश के लिए प्रयोग करना आरंभ किया। जिसका परिणाम यह हुआ कि अनेक लोगों को गरीबी की रेखा से बाहर निकालने में सफलता मिली। डॉ मनमोहन सिंह जब देश के प्रधानमंत्री थे तो उनकी नीतियों की प्रशंसा करने में कभी कांग्रेसियों ने अधिक रुचि नहीं दिखाई। यद्यपि पी0वी0 नरसिम्हाराव की अपेक्षा उन्हें कांग्रेस और नेहरू गांधी परिवार की बहुत अधिक उपेक्षा का शिकार भी नहीं होना पड़ा। डॉ मनमोहन सिंह के नेतृत्व में बनी सरकार ने अपने पहले कार्यकाल में ही यह स्पष्ट कर दिया कि वह आर्थिक विकास के क्षेत्र में सुनियोजित दृष्टिकोण अपनाकर आगे बढ़ने में रुचि रखती है। परिणामस्वरुप आर्थिक विकास के क्षेत्र में देश ने महत्वपूर्ण प्रगति की। उस समय सूचना का अधिकार अधिनियम भी अस्तित्व में आया।
भ्रष्टाचार के विरुद्ध 2005 में लाये गये इस अधिनियम को सरकार ने तुरंत लागू कराया। जिसे संक्षेप में हम आर0टी0आई0 के नाम से जानते हैं। इस अधिनियम के माध्यम से नौकरशाही की तानाशाही पर लगाम लगाने में सफलता मिली। लोगों को यह अधिकार दिया गया कि वह किसी भी सरकारी विभाग से कोई भी जानकारी प्राप्त कर सकते हैं । इसके लिए शर्त केवल यह थी कि सूचना अधिकार के अंतर्गत प्राप्त की जाने वाली जानकारी तथ्यों पर आधारित होनी चाहिए।
डॉ मनमोहन सिंह ने अपने अर्थशास्त्र में ग्रामीण और गरीब लोगों के उत्थान के लिए भी विशेष ध्यान दिया। उन्होंने 2005 में एक राष्ट्रीय रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) बनाया। मनरेगा के माध्यम से डॉ मनमोहन सिंह ने लोगों को रोजगार की गारंटी दी। इससे अनेक परिवारों को लाभ मिला डॉ मनमोहन सिंह ने अपनी विनम्रता का परिचय देते हुए बिना किसी राजनीतिक द्वेष भाव के अपने से पूर्व की अटल सरकार की स्वर्णिम चतुर्भुज और राजमार्ग आधुनिकीकरण योजना के अंतर्गत चल रहे कार्यक्रमों को यथावत जारी रखा। स्वर्णिम चतुर्भुज योजना से देश के अनेक भागों को एक दूसरे से जोड़ने में सफलता प्राप्त हुई । जिससे व्यापार के क्षेत्र में काम कर रहे लोगों को भी कई प्रकार के लाभ प्राप्त हुए। डॉ सिंह ने बैंकिंग और वित्तीय क्षेत्रों के साथ-साथ सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों में सुधार पर कार्य करते हुए देश को प्रगति पथ पर आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया।

14 वीं लोकसभा के बारे में आंकड़े

  2004 के 14 वीं लोकसभा के चुनाव पर 2016.1 करोड़ रूपया खर्च हुआ था। इस चुनाव के समय भारत के कुल मतदाताओं की संख्या 67 करोड़ 50 लाख थी। जिनमें से 58.07% लोगों ने अपने मतदान का प्रयोग किया था। उस समय देश के राष्ट्रपति डॉ ए0पी0जे0 अब्दुल कलाम थे। 22 मई 2004 को डॉ कलाम ने डॉ मनमोहन सिंह को देश के प्रधानमंत्री के रूप में शपथ दिलवाई थी। डॉ ए0पी0जे0 अब्दुल कलाम की संस्मरणों पर आधारित पुस्तक 'विंग्स आफ फायर' के दूसरे खंड 'टर्निंग पॉइंट्स' से पता चलता है कि

‘ 2004 के चुनाव परिणाम आने के पश्चात जब सोनिया गांधी उनसे मिलने के लिए राष्ट्रपति भवन पहुंची तो उन्होंने सोनिया को देश की अगली प्रधानमंत्री बनाने के लिए चिट्ठी पहले से ही तैयार करवा ली थी। पर जब सोनिया गांधी राष्ट्रपति भवन पहुंची तो उनके साथ डॉ मनमोहन सिंह को देखकर उन्हें स्वयं भी आश्चर्य हुआ। डॉ मनमोहन सिंह बताते हैं कि सोनिया गांधी ने उस समय मुझे कई दलों के समर्थन पत्र दिए। इस पर मैंने कहा कि यह स्वागत योग्य है और राष्ट्रपति उनकी सुविधा के समय पर शपथ ग्रहण करवाने के लिए तैयार हैं। डॉ मनमोहन सिंह ने आगे लिखा है, “इसके बाद उन्होंने बताया कि वे मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री के पद पर मनोनीत करना चाहेंगीं। ये मेरे लिए आश्चर्य का विषय था और राष्ट्रपति भवन के सचिवालय को चिट्ठियाँ फिर से तैयार करनी पड़ीं।’
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के पहले कार्यकाल में 10 पाकिस्तानी आतंकवादी समुद्री मार्ग से 26 नवंबर, 2008 को मुंबई में घुसने में सफल हो गए थे। जहां पर उन्होंने अंधाधुंध फायरिंग कर पूरा उत्पात मचाया। इस आतंकी घटना में 18 सुरक्षाकर्मियों सहित 166 लोगों को असमय ही संसार से जाना पड़ गया था। कई अन्य लोग घायल हुए थे। इस आतंकी हमले में करोड़ों रुपये की संपत्ति की क्षति भी हुई। इस समय दसवीं पंचवर्षीय योजना चल रही थी। जिसका काल निर्धारण 2002 से 2007 किया गया था। श्री एन. गोपालस्वामी (30 जून 2006
से 20 अप्रैल 2009) और श्री नवीन बी. चावला ( 21 अप्रैल 2009 से 29 जुलाई 2010) इस समय देश के मुख्य निर्वाचन आयुक्त थे।

डॉ राकेश कुमार आर्य

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