हिंदुस्तान के “दिल” मध्यप्रदेश में भाजपा का वर्चस्व

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जावेद अनीस

वर्ष 2024 के लोकसभा चुनाव में हिन्दुस्तान ने भले ही भाजपा को निराश किया हो लेकिन अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण “हिन्दुस्तान का दिल” कहे जाने वाले मध्यप्रदेश ने उसके प्रति जबरदस्त वफादारी दिखाई है. मोदी-शाह के गढ़ गुजरात में भाजपा लगातार तीसरी बार सभी सीटें जीतने में नाकाम रही हों लेकिन इस बार उसने मध्यप्रदेश में सभी 29 सीटों पर जीत हासिल करके एक नया इतिहास रच दिया है, इसके साथ ही भाजपा मध्यप्रदेश में 40 साल बाद ऐसी उपलब्धि हासिल करने वाली पहली राजनीतिक पार्टी बन गई. यह स्थिति तब है जब राज्य की कमान सूबे में उसके सबसे लोकप्रिय नेता शिवराज सिंह चौहान के हाथों में नहीं थी. इधर कांग्रेस ने अपने नाकारापन से कागजी विपक्ष के अपने छवि को और मजबूत किया है,

चढ़ता खुमार

मध्यप्रदेश में कुल 29 लोकसभा सीटें है, पिछले तीन लोकसभा चुनाव को देखें तो वर्ष 2014 में भाजपा को 27 सीटें (लगभग 54 प्रतिशत वोट) मिली थीं, वर्ष 2019 के चुनावों में उसे छिंदवाड़ा छोड़ कर बाकी की 28 सीटें (58 प्रतिशत वोट) मिली थी जबकि वर्ष 2024 में उसने कमाल करते हुये सभी 29 सीटें (करीब 60 प्रतिशत वोट) जीत ली हैं. यही नहीं इस बार 26 निर्वाचन क्षेत्रों में भाजपा की जीत का अंतर 1 लाख से 5 लाख वोटों के बीच रही है, जाहिर है वक्त के साथ वफादारी ही नहीं वफादारी का ग्राफ भी बढ़ता गया है. मध्यप्रदेश में क्लीन स्वीप का कमाल दूसरी बार हुआ है, इससे पहले वर्ष 1984 में इंदिरा गांधी जी की हत्या के बाद कांग्रेस को सभी 40 सीटों पर सफलता मिली थी. जाहिर है यह एक सहानुभूति की लहर थी लेकिन वर्ष 2024 में भाजपा ने बिना किसी लहर के इस चमत्कार को अंजाम दिया है. यहाँ तक कि पिछले दो चुनावों की तरह इस बार मोदी लहर भी नहीं थी.

दूसरी तरफ कांग्रेस की बात करें तो वर्ष 2014 के बाद से सूबे में उसका ग्राफ बहुत तेजी से गिरता गया है. वर्ष 2014 में कुल 2 सीटों और करीब 35 प्रतिशत वोट शेयर से वही वर्ष 2024 में वो शून्य सीट और करीब 33 प्रतिशत वोट शेयर तक पहुँच गयी है. हालांकि इस दौरान उसे एक बार राज्य में मामूली बहुमत के साथ सरकार बनाने का मौका भी मिला है, लेकिन अपने आंतरिक कलहों के चलते उसने इसे गवांने में भी ज्यादा समय नहीं लगाया.

पुरानी प्रयोगशाला

मध्यप्रदेश संघ परिवार का पुराना गढ़ रहा है जो अब अभेद दुर्ग में बदल चुका है. मध्यप्रदेश वह सूबा है जहाँ संघ परिवार अपने शुरुआती दौर में ही दबदबा बनाने में कामयाब रहा है, इस प्रयोगशाला में संघ सामाजिक स्तर पर अपनी गहरी पैठ बना चुका है जिसमें आदिवासी क्षेत्र भी शामिल हैं. बीच में करीब 15 महीने के कमलनाथ के कार्यकाल को छोड़ दिया जाये तो भाजपा वर्ष 2003 से यहां लगातार सत्ता में हैं, इस दौरान अधिकतर समय शिवराजसिंह चौहान ही सत्ता के केंद्र में रहे हैं, लेकिन वर्ष 2023 में भाजपा की जीत के बाद 18 साल तक मुख्यमंत्री रहे शिवराज सिंह चौहान को हटाकर मोहन यादव को प्रदेश की कमान सौंप दी गयी थी, लेकिन इसके बावजूद भी लोकसभा के नतीजे बताते हैं कि सूबे में भाजपा का वर्चस्व कायम है.

मध्यप्रदेश में भाजपा बहुत ही आक्रामक तरीके से चुनाव लड़ी है जिसके तहत यह खुला एलान कर दिया गया था कि इस बार उसका इरादा सभी 28 सीटों के साथ कांग्रेस के अंतिम किले छिंदवाडा को भी फतेह करना है जिसमें वे पूरी तरह से कामयाब भी हुये हैं. इसी के तहत कांग्रेस में हर स्तर पर बड़े पैमाने पर तोड़फोड़ की गयी, बीच चुनाव के दौरान कांग्रेस के तीन विधायक और इंदौर से कांग्रेस प्रत्याशी भाजपा में शामिल हो गये. कांग्रेस इस सामूहिक पलायन को रोकने में पूरी तरह से नाकाम और असहाय नजर आई. कांग्रेस में भगदड़ की हालत यह थी कि बीच में यह अफवाह भी उडी कि खुद प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष जीतू पटवारी भी बीजेपी में शामिल होने जा रहे हैं जिसके बाद उन्हें सफाई देनी पड़ी.

मध्यप्रदेश की राजनीति जाति निरपेक्ष रही है. यहां की सियासत में यूपी, बिहार की तरह ना तो जातियों का दबदबा है और ना ही जाति के आधार पर राजनीतिक एकजुटता दिखाई पड़ती है. यहाँ भाजपा ने जातिगत पहचान की राजनीति को अपने विशाल हिंदुत्व के छतरी के नीचे समाहित कर लिया है, लेकिन साथ ही परदे के पीछे से उसने जातिगत समीकरण को भी साधने की भी कोशिश की है. गौरतलब है कि मध्यप्रदेश में करीब 52 प्रतिशत ओबीसी आबादी है. मध्यप्रदेश की सत्ता में दिग्विजय सिंह के पराभाव के बाद से यहां ओबीसी वर्ग के नेताओं का वर्चस्व रहा है और दिग्विजय सिंह के बाद से पांच मुख्यमंत्री हो चुके है जिसमें से चार उमा भारती, बाबूलाल गौर, शिवराजसिंह चौहान और मोहन यादव पिछड़ा वर्ग और भाजपा के हैं. मौजूदा समय में सूबे में भाजपा के पास शिवराज सिंह चौहान और मोहन यादव के रूप में ओबीसी नेतृत्व है जबकि इनके मुकाबले कांग्रेस के पास शीर्ष स्तर पर ऐसा कोई विश्वसनीय ओबीसी नेता नहीं है. एक अरुण यादव थे जिनमें सम्भावना देखी जा रही थी लेकिन उड़ान से पहले ही उनके पर क़तर दिए गये थे.

सिकंदर शिवराज

वर्ष 2005 में जब शिवराजसिंह चौहान को मुख्यमंत्री बनाकर मध्यप्रदेश भेजा गया था तब शायद ही किसी ने सोचा होगा कि शिवराज इतनी लंबी पारी खेलेंगे, इस दौरान वे पार्टी के अंदर से मिलने वाली हर चुनौती को पीछे छोड़ने में कामयाब रहे हैं और विपक्ष को प्रभावी नहीं होने दिया. 18 साल तक मुख्यमंत्री रहने के बाद भाजपा जब चौथी बार सत्ता में आयी तो चुनाव जीतने के अगले दिन ही शिवराज छिंदवाड़ा के दौरे पर निकल गये और वहीं से “मिशन-29” का ऐलान करते हुये कहा था कि “लोकसभा की हर सीट को एक कमल का फूल मानें तो प्रदेश की 29 लोकसभा सीटों के 29 कमल हुए…मेरा एक ही लक्ष्य है कमल के 29 फूलों की माला मोदी जी के गले में पहनना.” हालांकि उम्मीद के विपरीत उनकी जगह मोहन यादव को मुख्यमंत्री बना दिया गया था जिसे एक अनुशासित सिपाही की तरह उन्होंने स्वीकार भी किया. वर्ष 2024 में उनका “मिशन-29”  पूरा हो चुका है वे खुद विदिशा सीट से आठ लाख से ज्यादा वोट से जीत कर दिल्ली पहुंचे हैं और आज मोदी कैबिनेट में कृषि मंत्री है. पिछले एक साल के दौरान हुये तमाम उतार चढ़ाव के बावजूद शिवराज सिंह चौहान अभी भी राज्य में पार्टी का सबसे विश्वसनीय चेहरा बने हुये हैं, उनकी सबसे बड़ी ताकत उनका लचीलापन है, वे वाकई में उस फ़ीनिक्स पक्षी की तरह है जिसमें अपनी राख से उठ खड़े होने का माद्दा(सामर्थ्य) है.

नकलची और नाकारा कांग्रेस

दूसरी तरफ कांग्रेस है जो अपने ही नाकारापन के रिकॉर्ड को तोड़ती आ रही है. मध्यप्रदेश में पिछले दो दशकों से कांग्रेस वहीँ के वहीँ कदमताल करते हुए नजर आ रही है, ना तो उसने अपनी लगातार हुई हारों से कोई सबक सीखा है और ना ही कभी-कभार मिली छुट-पुट जीतों से ही उसमें कोई उत्साह देखने को मिला है, उसका जनता से जुड़ाव लगातार कमजोर हुआ है. मध्यप्रदेश में कांग्रेस की स्थिति को कांग्रेस प्रवक्ता पवन खेड़ा के उस हालिया बयान से समझा जा सकता है जिसमें वो कहते हैं कि ‘जब मैं मध्य प्रदेश के अपने नेताओं को देखता हूँ तो लगता है कि वह अपने आप को विपक्ष नहीं, सत्ताधारी दल मानते हैं.’ मध्यप्रदेश में अगर भाजपा लगातार मजबूत होती गयी है तो इसमें कांग्रेस का भी कम योगदान नहीं है. यह माना जाता है कि मध्यप्रदेश में कांग्रेसी अपने प्रमुख प्रतिद्वंदी भारतीय जनता पार्टी से कम और आपस में ज़्यादा लड़ते हैं. पार्टी के इलाकाई क्षत्रपों की राजनीति अपने-अपने इलाकों को बचाए रखने तक ही सीमित रही है.

इस बार के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस लगभग नेतृत्वविहीन थी, चुनाव से ठीक पहले इसके पूर्व प्रदेश अध्यक्ष कमलनाथ के भाजपा में जाने की अटकलें चल रही थीं जिसके बाद उनकी विश्वसनीयता बहुत कम हो गयी थी. विधानसभा चुनाव में हार से कांग्रेस कार्यकर्ता पहले से ही हताश थे, कमलनाथ के भाजपा में शामिल होने की अफवाहों ने इस हताशा को और बढ़ा दिया था. लोकसभा चुनाव के दौरान छिंदवाड़ा में भाजपा की आक्रमक किलेबंदी के चलते वे वहीँ सीमित होकर रह गये. इसी प्रकार से प्रदेश कांग्रेस के दूसरे बड़े नेता दिग्विजय सिंह भी अपने ही सीट में उलझ कर रह गये थे. चुनाव से ठीक पहले पीसीसी अध्यक्ष बनाये गये जीतू पटवारी पार्टी पर पकड़ बनाने में नाकाम रहे.वे पार्टी के वरिष्ठ नेताओं का विश्वास और पार्टी में मची भगदड़ को रोकने में पूरी तरह से नाकाम रहे. खुद अपने क्षेत्र इंदौर के कांग्रेसी प्रत्याशी अक्षय कांति बाम को ही भाजपा में जाने से रोकने में नाकाम रहे.

विचारधारा के मामले में भी मध्यप्रदेश कांग्रेस एक नकलची बन्दर की तरह नजर आती है खासकर प्रदेश अध्यक्ष के तौर पर कमलनाथ के आने के बाद से वो नरम हिंदुत्व के रास्ते पर आगे बढ़ी है, जिसकी वजह से विचारधारा के स्तर पर वो भाजपा की बी टीम की तरह नजर आयी है. 

मध्यप्रदेश की राजनीति अमूमन दो पार्टी सिस्टम की रही है लेकिन कांग्रेस अपने नाकारापन के चलते इसे एक पार्टी सिस्टम बनाने पर तुली हुई है.

मध्यप्रदेश में भाजपा की जड़ें बहुत मजबूत हो चुकी हैं. क्लीन स्वीप की अभूतपूर्व सफलता से मुख्यमंत्री मोहन यादव उत्साहित नजर आ रहे हैं, साथ ही शिवराज सिंह चौहान भी मोदी सरकार में कैबिनेट मंत्री बनकर दिल्ली चले गये हैं ऐसे में उनके वर्ष 2028 तक मुख्यमंत्री बने रहने की संभावना बढ़ गयी है. इधर कांग्रेस में कमलनाथ और दिग्विजय सिंह जैसे पुराने नेताओं का दौर खत्म हो चुका है लेकिन पार्टी उनका कोई विकल्प तलाश नहीं पायी है. उनके स्थान पर पीसीसी प्रमुख के तौर पर जीतू पटवारी और विपक्ष के नेता के तौर पर उमंग सिंघार का प्रयोग अभी तक अपना प्रभाव छोड़ने में नाकाम साबित हुआ है. ऐसे में कांग्रेस को ओबीसी, एससी और एसटी के बीच से नये नेताओं को चुनने और उन्हें गढ़ने की लंबी प्रक्रिया के गुजरना होगा साथ ही उसे विचारधारा के तौर पर भी स्पष्टता लाने की जरूरत है तभी तो वो ‘हिन्दुस्तान के दिल’ में अपनी जगह को वापस पाने में काययाब हो सकेगी.     

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