मौसम, पर्यावरण, बिजली और पानी के संकट की बात बहुत लोग कहते हैं। कोई बड़े बांधों का विरोधी है, तो कोई समर्थक। कोई शहरों के पक्ष में है, तो कोई ‘भारतमाता ग्रामवासिनी’ की याद दिलाता है। लेकिन हाल ये है कि ‘मर्ज बढ़ता गया, ज्यों-ज्यों दवा की।’
दुनिया में इलाज की होम्योपैथी, एलोपैथी, आयुर्वेद, यूनानी, तिब्बती, प्राकृतिक, योग आदि कई विधाएं प्रचलित हैं; लेकिन सबसे अच्छी पद्धति वही है, जो रोग के मूल कारण का निदान करे, जिससे वह रोग तो दूर हो ही, भविष्य में भी उसके होने की संभावना न रहे। यही बात हमें बिजली, पानी और पर्यावरण के प्रति लगातार बढ़ रहे संकट के बारे में सोचनी होगी।
बिजली और पानी की अत्यधिक खपत के दो कारण हैं। पहला है तेजी से बढ़ती जनसंख्या। यह तो सब जानते हैं कि देश में एक समुदाय की जनसंख्या बहुत तेजी से बढ़ रही है। उसके कारण कश्मीर से लेकर कैराना तक अनेक तरह की समस्याएं भी खड़ी हो रही हैं; पर इसके निदान के बारे में सोचते ही नेता और राजनीतिक दलों को बुखार आ जाता है। क्योंकि इनके थोक वोट किसी को भी हरा या जिता सकते हैं; लेकिन जनसंख्या पर नियंत्रण तो करना ही होगा।
कुछ लोग इसका उपाय ‘पुरस्कार और तिरस्कार’ नीति को बताते हैं। अर्थात दो बच्चों वाले दम्पति को सरकारी नौकरी, राशन, मकान, चुनाव लड़ने एवं वोट देने का अधिकार आदि सभी सरकारी सुविधाएं मिले, जबकि तीन या अधिक बच्चों वाले लोगों से क्रमशः ये सुविधाएं वापस ली जाएं। इससे जोर-जबरदस्ती किये बिना जनसंख्या नियन्त्रित हो जाएगी।
दूसरा विषय है बढ़ता शहरीकरण। गांव की अपेक्षा शहर में बिजली और पानी बहुत अधिक खर्च होता है। यदि गांवों में बिजली, साफ पानी, शिक्षा, सड़क, शिक्षा और रोजगार का उचित प्रबन्ध हो, तो अपना गांव छोड़कर शायद ही कोई शहर की भीड़ एवं प्रदूषित वातावरण में आना चाहेगा। यदि सड़क और यातायात के समुचित साधन हों, तो पढ़ने या रोजगार के लिए प्रतिदिन दस-बीस कि.मी. दूर जाना कठिन नहीं है। लेकिन अब गांव में रहना पिछड़ेपन का प्रतीक बन गया है। ऐसे में नौकरी आदि से अवकाश लेने के बाद लोग यदि गांव में ही रहें, तो उनकी क्षमता, योग्यता एवं अनुभव का लाभ गांव को मिलेगा और वे भी जीवन के संध्याकाल में अपने मित्र, रिश्तेदारों और प्रकृति के पास रहकर अच्छा अनुभव करेंगे।
बिजली की खपत भी लगातार बढ़ ही रही है। भौतिक सुख-सुविधा के अधिकांश उपकरण बिजली से ही चलते हैं। ऐसे में कम खपत वाले उपकरणों के प्रयोग तथा अधिकाधिक बिजली निर्माण पर विचार करना होगा। अभी तो बिजली का निर्माण मुख्यतः कोयला, जल और परमाणु संयंत्रों से हो रहा है; लेकिन इन दिनों सौर ऊर्जा की भी बहुत चर्चा है। इसे ही भविष्य की ऊर्जा कहा जा रहा है; लेकिन अभी इसके उपकरण महंगे हैं। अतः ग्रामीण क्षेत्रों में सरकार इस पर सहायता देती है। इस पर और अधिक ध्यान देना होगा।
‘अपना घर, अपनी बिजली’ योजना बनाकर लोगों को प्रोत्साहित करना होगा कि वे छत पर सौर ऊर्जा के संयंत्र लगाकर खुद बिजली बनाएं। वे अपनी जरूरत से अधिक बिजली पड़ोसी या सरकार को भी बेच सकते हैं। इससे दानवाकार बांध, कोयले का प्रदूषण तथा परमाणु ऊर्जा संयंत्रों के खतरे कम होंगे। गांवों में ‘पशु ऊर्जा’ के प्रोत्साहन से तेल के लिए विदेशी निर्भरता घटेगी।
इंग्लैंड, अमरीका आदि ठंडे देश हैं। ठंड रोकने के लिए वहां भवनों में खिड़की, रोशनदान आदि नहीं होते। उनकी देखादेखी हमने भी वही भेड़चाल अपना ली। हमारे भवन यहां के मौसम के अनुसार हों, तो हवा और रोशनी आएगी और बिजली बचेगी।
घरों में पानी की खपत घटाने के लिए दिल्ली सरकार का प्रयोग ठीक है। अर्थात प्रतिमास बीस हजार लीटर पानी निःशुल्क; पर उससे आगे मीटर बढ़ते ही पूरे पानी का पैसा देना होगा। इससे लोग सावधान रहते हैं; लेकिन लोग पूछते हैं कि क्या कभी निजी बोरिंग पर भी मीटर लगेंगे ? हर भवन में वर्षा जल के संरक्षण का अनिवार्य प्रावधान हो तथा मिस्त्रियों को इसका प्रशिक्षण दिया जाए। हर खेत में निजी तालाब भी जल संरक्षण का ही अगला चरण है।
कम पानी के प्रयोग वाली कुछ बातें हमें अपनानी ही होंगी। जैसे देसी साबुन की बजाय डिटरजेंट साबुन या पाउडर से कपड़े धोने पर दोगुना पानी खर्च होता है; लेकिन सरकारी नीति के कारण हर नगर में चलने वाले देसी साबुन के लघु उद्योग बंद हो गये। अधिक पानी पीने वाली फसलों के स्थान पर कम पानी वाली फसलों को प्रोत्साहन देने से भी पानी बच सकता है।
पानी की ही तरह बिजली भी कम खर्च करने वालों को सस्ती तथा अधिक खर्च करने वालों को महंगी मिले। यहां भी फोन जैसे ‘प्रिपेड और पोस्टपेड’ प्रावधान किये जाएं। आजकल बिजली का अवैध प्रयोग रोकने के लिए भूमिगत तार डल रहे हैं; लेकिन क्या फोन की तरंगों की तरह बिजली भी बिना तार के दौड़ सकती है; क्या विज्ञान के पास इसका उत्तर है ?
महानगरों में प्रदूषण लगातार बढ़ रहा है। ए.सी. गाड़ी में चलने वाले स्वर्ग का, जबकि बाहर वाले नरक का अनुभव करते हैं। क्या ए.सी. गाड़ियां जरूरी हैं ? सड़कों पर जाम भी एक समस्या बन गया है। इसके लिए काम का समय चार भागों में बांट सकते हैं। जिला, नगर आदि के कार्यालय प्रातः आठ से चार, राज्य कार्यालय नौ से पांच, केन्द्रीय कार्यालय दस से छह तथा निजी संस्थाएं व बाजार ग्यारह से सात बजे तक खुलें। बाजार देर तक खुलने से बिजली तो खर्च होती ही है, लोग अपने परिवार को भी समय नहीं दे पाते। इससे कई घरेलू समस्याएं बढ़ रही हैं।
आजकल स्वच्छता अभियान और शौचालय निर्माण का खूब जोर है। यह अभियान ठीक भी है; पर मल निस्तारण की केन्द्रीय व्यवस्था के चलते यह सारी गंदगी नदियों में चली जाती है। गंगा और यमुना की सफाई की बात तो होती है, पर हजारों छोटी नदियां भी यह गंदगी ढो रही हैं।
पहले फ्लश वाले शौचालय के साथ ही ‘सैप्टिक टैंक’ भी बनते थे, जो आंतरिक प्रक्रिया से स्वयं साफ होते रहते थे; पर सीवर लाइन डलने से यह व्यवस्था केन्द्रित होकर बिगड़ गयी। यहां भी कोई संतुलन स्थापित कर ‘सफाई करने’ की बजाय ‘सफाई रखने’ को लक्ष्य बनाना होगा। डा. बिन्देश्वरी पाठक के ‘सुलभ शौचालय’ की सराहना सारे विश्व में होती है। इसे और अधिक विस्तृत करने का प्रयास शासन तथा निजी संस्थाओं को करना होगा।
कूड़ा भी इन दिनों समस्या बन रहा है। यद्यपि वैज्ञानिक व्यर्थ प्लास्टिक का सड़क और पैट्रोल निर्माण में सदुपयोग कर रहे हैं; पर घरेलू कूड़ा घर में ही निबट जाए, इसके रास्ते भी खोजने होंगे। कई जगह सब्जी और फल के छिलके तथा बासी खाने से घरेलू उपयोग की गैस बनती है। सस्ता और व्यावहारिक बनाकर इसका प्रचलन भी बढ़ाना होगा।
इस तरह के सैकड़ों विषय हैं, जिनके लिए कई लोग तथा देशी-विदेशी संस्थाएं आंदोलन कर रही हैं; पर केवल आंदोलन से समस्या हल नहीं होगी। उन्हें कोई व्यावहारिक समाधान भी सुझाना होगा। और केवल सुझाना ही नहीं, तो किसी क्षेत्र विशेष में उसे सफल करके दिखाना भी होगा। यदि ऐसा हो, तो फिर शासन भी इस बारे में कानून बनाने को बाध्य होगा।
पानी के लिए राजेन्द्र सिंह (अलवर), सच्चिदानंद भारती (पौड़ी गढ़वाल), विश्वनाथ एस. (बेंगलुरू) तथा मिहिर शाह (देवास, म.प्र.) आदि ने ऐसे सफल प्रयोग किये हैं, जो सबके लिए मार्गदर्शक बन सकते हैं। समाज के प्रति जिनके मन में संवेदना है, ऐसे लोग चाहे जिस आयुवर्ग के हों, वे नये-नये प्रयोग करें। समय की यह बहुत बड़ी आवश्यकता है।
– विजय कुमार