-सिद्धार्थ शंकर गौतम-
२६ मई २०१४ को जब नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली थी तो सार्क देशों के राष्ट्राध्यक्षों को शपथ ग्रहण समारोह में आमंत्रित कर उन्होंने अपनी विदेश नीति और पड़ोसी देशों के साथ अपने आगामी संबंधों का खाका खींच लिया था। हालांकि एक वर्ष में २० राष्ट्रों की यात्रा ने मोदी को सवालों के घेरे में ला खड़ा किया था और पड़ोसी देश बांग्लादेश न जाने को लेकर अक्सर उनकी आलोचना होती थी। अब जबकि प्रधानमंत्री मोदी अपनी धुर विरोधी पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के साथ बांग्लादेश की यात्रा पर हैं और वहां प्रधानमंत्री शेख हसीना के साथ २२ समझौतों पर दस्तखत कर चुके हैं तो यह मानना ही होगा कि भविष्य की रणनीति के तहत बांग्लादेश से अच्छे संबंधों का लाभ पाकिस्तान और चीन के भारत विरोधी रुख में भी कमी लाएगा। जहां तक बात बांग्लादेश से मधुर संबंधों की है तो प्रधानमंत्री की बांग्लादेश यात्रा से वहां के राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी दलों में सर्वसम्मति देखने को मिली है। सत्तारुढ़ अवामी लीग और विपक्षी बीएनपी एक स्वर में भारत के साथ बेहतर संबंधों की पैरवी कर रही हैं। यहां तक कि अपने भारत विरोधी रुख के लिए जानी जाने वाली जमात-ए-इस्लामी पार्टी ने भी मोदी की बांग्लादेश यात्रा का स्वागत किया है। यह दोनों पड़ोसी देशों के सुनहरे भविष्य की शुरुआत है। प्रधानमंत्री मोदी के बांग्लादेश जाते ही दोनों देशों के बीच दो बस सेवाओं की शुरुआत की गई। कोलकाता, ढाका और अगरतला के साथ ही ढाका, शिलांग और गुवाहाटी के बीच बस सेवा का शुरू होना दोनों देशों के बेहतर संबंधों को नया आयाम देगा, ऐसा सबका मत है। प्रधानमंत्री मोदी का वर्ष १९७१ की लड़ाई में शहीद हुए सैनिकों की याद में बने वॉर मेमोरियल को देखने जाना, सैनिकों को श्रद्धांजलि देना और उसके बाद शेख मुजीबुर रहमान म्यूजियम जाना बांग्लादेश की जनता कभी नहीं भुला पाएगी। यह प्रधानमंत्री मोदी का ही हुनर है कि उन्होंने ४१ वर्ष पुराने सीमा विवाद को सुलझाते हुए दोनों देशों के बीच एक ज्वलंत विरोधी मुद्दे को समाप्त कर दिया।
दरअसल भारत-बांग्लादेश के बीच चल रहे इस सीमा विवाद में फंसे करीब ५१ हजार लोगों के पास अब तक कोई नागरिकता नहीं थी, लेकिन अब उन्हें अपना देश चुनने का मौका मिल रहा है। फिलहाल १११ भारतीय गांव बांग्लादेश की सीमा के भीतर हैं, जबकि ५१ बांग्लादेशी गांव भारत की सीमा के भीतर हैं। जुलाई २०११ की जनगणना के मुताबिक, बांग्लादेश में पड़ने वाले भारतीय गांवों में ३७,३३४ लोग रहते थे। इसी तरह भारत में मौजूद बांग्लादेशी गांवों में १४,२१५ लोग थे। दो साल पहले हुए एक सर्वे के अनुसार बांग्लादेश में भारतीय भूखंडों में रहने वाले करीब ३७ हजार में से कुल ७४३ लोग ही भारत लौटना चाहते थे जबकि भारत में बांग्लादेशी भूखंडों में से कोई भी सीमा पार नहीं जाना चाहता। सत्ता में आने के बाद मोदी ने कूटनीति और घरेलू राजनीति को अलग रख इतना तो कर ही दिया कि इन ५१ हजार लोगों के अब अच्छे दिन आने वाले हैं। इस समझौते से अवैध बांग्लादेशियों की समस्या का भी निदान होगा। हालांकि पहली नजर में ऐसा लगता है कि यह समझौता भारत के हितों के खिलाफ है क्योंकि भारत को बहुत कम जमीन जो बांग्लादेश के अधिकार में थी, मिलेगी। लेकिन इसके बदले में एक बहुत बड़ा हिस्सा भारत से बांग्लादेश को मिलेगा। किन्तु देखा जाए तो इस समझौते का भारत को फायदा भी होगा। भारत के लिए अब सीमा पर बाड़ लगाना आसान हो जाएगा। इसके लगने से सीमा पार से होने वाली घुसपैठ बंद हो जाएगी। इस समझौते से पता चलता है कि अगर इरादे नेक और बुलंद हों तो सीमा विवाद शांतिपूर्ण ढंग से निकाला जा सकता है। मोदी सरकार ने इस समझौते से यह भी जता दिया है कि वह ढाका को लेकर गंभीर है। देखा जाए तो दोनों देश सीमा विवाद, जल विवाद आवाजाही सुधार और सीमा शुल्क संबंधी बाधाओं को कम करके आपसी व्यापार और निवेश को बढ़ावा दे सकते हैं जो दोनों की अर्थव्यवस्था के लिए लाभदायक होगा।प्रधानमंत्री मोदी की पहली बांग्लादेश यात्रा इसी कड़ी की शुरुआत है।