—विनय कुमार विनायक
सुरा;
आदिसुरी
विश्वमोहिनी के हाथ की जादूगरी
सुरों के अमरत्व की आकांक्षा अमृता
असुरों की वासनामयी जिजीविषा!
सुरा;
जिसे बांटा था आदिसुरी ने
एक ही अमिय कलश से
सुरों-असुरों में एक ही प्याला से
जो बन गयी एक ही समय में
सुरों का अमृत, असुरों की मदिरा!
कहते हैं जाकि रही भावना जैसी
प्रभु मूरत देखी तिन तैसी!
सुरा;
जब धन्वंतरि के हाथों में था
था सागर का सुमथित फेन फेना
एक वैद्य की दुआ कायाकल्प सुधा
अमरता की औषधि, रामबाण दवा
मृतसंजीवनी सुरा!
जो पीनेवाले की भावना, पीने की मात्रा
और देह की धारण क्षमता से बन गयी
एक के लिए अच्छी दूसरे के लिए बुरी!
सुरा;
कौन कहता यह श्रीविष्णु का खेल था
सुरपालक असुरद्रोही भाव से खेला गया?
कौन कहता आदिसुरी श्रीविष्णु छली थे?
एक डग ग्वालिन की भरकर
देवों को पिला गए क्षीर
दूजा डग कलवारिन की भरकर
दानवों को पिला गए मदिरा!
छलिया उनका नाम सही
पर छलना उनका काम नहीं
छले जाते हैं लोग अपनी ही मंशा से!
पीओ सुरा तुम चम्मच से,
वह जीवन औषधि बन जाता!
पीओ सुरा तुम प्याला से,
वह मस्ती हाला बन जाता!
पीओ सुरा तुम बोतल से,
वह हलाहल बन जाता!
ना सुरा बुरी, ना सुरी बुरा,
पीने की मजबूरी बुरी!
(2)
देख अमृत कलश विश्वमोहिनी के हाथ
पराजित देवों में मातृभाव पनपा था
या देवी सर्वभूतेषु मातृरुपेण संस्थिता
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः
अमिय दो माते कहकर चिल्लाया था!
देख अमिय कलश विश्वमोहिनी के हाथ में
दानवों में उद्दाम वासना जग आया था
बांह थाम कहा यौवनरस मदनी पिला साक़िया!
अलग-अलग भावना की अलग-अलग परिणति
वही सुधारस, वही कलश, एक ही प्याला,
एक ही साकी, एक ही मयखाना के हमप्याला थे
देव और दानव,फिर भी कहते लोग इसे
विश्वमोहिनी आदिसुरी विष्णु का छल करतब!
जो बूंद गिरा देवों के मुख में
वह अमृत रस अमृता कहलाया,
जो धार गिरा दानवी जिह्वा पर
वह वरा मदिर वासना बन छाया!
एक ही मेघ का बूंद,
एक सीपी का मोती,
दूजा रेत का धुंध बन जाता
सुरा सुरों का पेय सोमरस,
असुरों की महुआ दारु मदिरा!
पीनेवाले कहते सुरा को अच्छी,
नहीं पिए सो कहे बुरी होती सुरा!
वैधानिक चेतावनी समझो
सुरा पीना बुरा है, बुरा-बुरा-बुरा—
(3)
क्यों चाहते हो अमर देव बन इतराना
या दानव बनकर वासना में तिर जाना
मिट गए अमर देव और अजेय दानव
आदिसुरी के हाथों अमृतरस पीकर भी!
कहते हैं अमृत विश्वमोहिनी के स्पर्श से
सुरा किंवा गंधमादिनी मदिरा में ढल गयी
श्रीविष्णु आदिसुरी बनके देव-दानवों को छल गए!
बदलो इस मंशा को कि दूध
कलारिन के हाथ मद बन जाता,
या कि नीर ग्वालिन के घट में
क्षीर बनकर बिक जाता!
मद पीओ दवा समझकर
और नीर को क्षीर
मन को नियंत्रित करके मानव
बन जाता स्वस्थ धीर-वीर-गंभीर
किंवा अजर-अमर बलवीर!
अमृत से विष तक विस्तृत
सुरा का स्वाद कैसा?
कम्बल ओढ़कर पीनेवाले सुर
जब पिए सुरा लगती सुरा जैसी
हमें बुरी सी लगती सुरा!
कम्बल बेचके पीनेवाले मजबूर जब पिए
यह सुरा बुरी नहीं बहुत बुरी लगती!
बर्फीले बार्डर में कम्बल सी वर्दी की कफनी ओढ़े
वीर जब पिए खून में गर्मी लाती, मां सी लोरी गाती
पिता सा ठंडी हथेली को सहलाते नजर आती
पत्नी आरती उतारती/पुत्री उंगली पकड़ती दिखती
पुत्र रण में साथ चलने को जिद करता,तुतलाता,
रणभेरी बजाते दिखता वीर अभिमन्यु के जैसा,
तब सुरा अमृत सा लगती है अमृता सोम सुधा!
सुरा को सुश्रुत आयुर्वेदाचार्य ने पीड़ाहरण संज्ञाहारी की संज्ञा दी
वैद्यराज चरक ने गर्भपात पीड़ा कम करने हेतु स्त्री प्रसूता को
सुरा अरिष्ट मधु मद्य मदिरा हाला आसव पीने की सलाह दी!
सुरा पाशुपतपंथी साधु पिए तो सीधु,अंत्यज के अन्नमल पचवई
जब सुर शौण्डिक क्षत्रिय वीर पिए तो वरुणात्मजा शुण्डा वारुणी
अथर्ववेद पांचवें से आठवें कांड में वर्णित है सुरा निर्माण विधि!
—विनय कुमार विनायक
दुमका, झारखंड-814101