-अशोक “प्रवृद्ध”
भारत के उड़ीसा राज्य के समुद्र तटवर्ती शहर पुरी में भगवान जगन्नाथ अर्थात श्रीकृष्ण को समर्पित श्री जगन्नाथ मंदिर को हिन्दुओं के चार धामों में से एक माना जाता है। जगन्नाथ शब्द का अर्थ जगत अर्थात ब्रह्माण्ड के स्वामी होता है। इस जगत के स्वामी की नगरी ही जगन्नाथपुरी अथवा पुरी कहलाती है। वैष्णव सम्प्रदाय का यह मंदिर भगवान विष्णु के अवतार श्री कृष्ण को समर्पित है। और मंदिर में भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा मुख्य देव के रूप में स्थापित हैं। इनकी मूर्तियां, एक रत्न मण्डित पाषाण चबूतरे पर गर्भ गृह में स्थापित हैं। जगन्नाथ पुरी का यह मंदिर एकलौता ऐसा मंदिर है, जहाँ तीन भाई बहन की प्रतिमा एक साथ है, और उनकी पूजा अर्चना की जाती है। इतिहास के अनुसार इन मूर्तियों की पूजा-अर्चना मंदिर निर्माण से पहले से ही की जाती रही है। यहां विस्तृत दैनिक पूजा-अर्चनाओं के साथ ही कई वार्षिक त्यौहार भी आयोजित होते हैं, जिनमें सहस्रों लोग भाग लेते हैं। इनमें सर्वाधिक महत्व का त्यौहार है, रथ यात्रा, जो आषाढ शुक्ल पक्ष की द्वितीया को आयोजित होता है इसे स्थानीय लोग चलती रथयात्रा के नाम से जानते हैं । इस उत्सव में तीनों मूर्तियों को अति भव्य और विशाल रथों में सुसज्जित कर वाद्य यंत्रों के वादन के मध्य हर्षोल्लास पूर्वक रथ यात्रा पर निकाला जाता है। रथयात्रा गुंडीचा मंदिर पहुँचती है, अगले दिन तीनों प्रतिमा को मंदिर में स्थापित किया जाता है ।फिर एकादशी तिथि तक भगवान जगन्नाथ अपने भाई -बहनों सहित वही रहते है। इस दौरान पुरी में मेला सदृश्य दृश्य होता है, तरह -तरह के आयोजन होते है और महाप्रसाद की बिक्री व वितरण होती है।आषाढ़ शुक्ल एकादशी के दिन जब इन्हें वापस मूलमंदिर लाया जाता है, उस दिन वैसे ही भीड़ उमड़ती है, उस दिन को बहुड़ा (घुरती अर्थात वापसी रथयात्रा) कहते है। वापसी के पश्चात जगन्नाथ की प्रतिमा भाई-बहनों सहित अपने मूल मंदिर के गर्भगृह में स्थापित कर दी जाती है। पूरे वर्ष में एक बार ही प्रतिमा को उनकी जगह से उठाये जाने की परिपाटी है। मान्यतानुसार देश के चार कोनों में स्थित अन्य धामों सहित समस्त संसार में प्रसिद्ध पुरी धाम की यात्रा मृत्यु के पूर्व मनुष्य द्वारा किये जाने से मनुष्य को मोक्ष की प्राप्ति होती है । यही कारण है कि उड़ीसा के पुरी में स्थित जगन्नाथ जी का मंदिर समस्त दुनिया में प्रसिद्ध है ।अत्यंत बिशाल व वर्षों पुराने जगन्नाथ पुरी स्थित भगवान विष्णु के अवतार श्रीकृष्ण के मंदिर में लाखों भक्त प्रतिवर्ष दर्शन के लिए जाते हैं। इस स्थान का मुख्य आकर्षण जगन्नाथ पुरी की रथ यात्रा भी किसी त्यौहार से कम नहीं होती है, और इस प्रकार की रथयात्रा पुरी के अतिरिक्त देश व विदेश के कई हिस्सों में भी निकाली जाती है। उल्लेखनीय है कि सम्पूर्ण संसार में प्रसिद्ध जगन्नाथ स्वामी के इस मंदिर के वार्षिक रथ यात्रा उत्सव में मंदिर के तीनों मुख्य देवता, भगवान जगन्नाथ, उनके अग्रज भ्राता बलभद्र और भगिनी सुभद्रा तीनों, तीन अलग-अलग भव्य और सुसज्जित रथों में विराजमान होकर नगर की यात्रा को निकलते हैं। अति प्राचीन काल से ही यह उत्सव अतीव हर्षोल्लस के साथ मनाया जाता है। इसके साथ ही यह उत्सव भारत के बहुत से वैष्णव कृष्ण मंदिरों में मनाया जाता है, एवं रथ यात्रा निकाली जाती है। यह मंदिर वैष्णव परंपराओं और संत रामानंद से जुड़ा हुआ है। यह गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय के लिये खास महत्व रखता है। इस पंथ के संस्थापक श्री चैतन्य महाप्रभु भगवान की ओर आकर्षित हुए थे और कई वर्षों तक पुरी में रहे भी थे। जगन्नाथ जी की रथयात्रा हर वर्ष आषाढ़ माह के शुक्ल पक्ष के दूसरे दिन द्वितीया तिथि को निकाली जाती है। इस साल यह 14 जुलाई 2018, दिन रविवार को निकाली जाएगी। रथयात्रा का महोत्सव दस दिन का होता है, जो शुक्ल पक्ष की ग्यारस (एकादशी) के दिन समाप्त होता है। इस दौरान पुरी में लाखों की संख्या में लोग पहुँचते है, और इस महाआयोजन का हिस्सा बनते है। इस दिन भगवन कृष्ण, उसके भाई बलराम व बहन सुभद्रा को रथों में बैठाकर गुंडीचा मंदिर ले जाया जाता है।तीनों रथों को भव्य रूप से सजाया जाता है, जिसकी तैयारी महीनों पहले से शुरू हो जाती है।
जगन्नाथपुरी स्थित जगन्नाथ मंदिर का सबसे पहला प्रमाण महाभारत के वनपर्व में मिलता है। इसके साथ ही कई पुराणों में भी इस मन्दिर का उल्लेख है। कहा जाता है कि सबसे पहले सबर आदिवासी विश्ववसु ने नीलमाधव के रूप में इनकी पूजा की थी। आज भी पुरी के मंदिरों में कई सेवक हैं, जिन्हें दैतापति के नाम से जाना जाता है। वर्तमान में उपलब्ध ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार श्री जगन्नाथ मंदिर के निर्माता कलिंग राजा अनंतवर्मन् चोडगंग देव थे। बाद में मन्दिर जीर्ण – शीर्ण स्थितिको प्राप्त हो गया तो इसके जीर्णोधारक उड़ीसा के तत्कालीन शासक अनंग भीम देव बने , जिन्होंने 1174 ईस्वी में मंदिर का जीर्णोधार करवाया। कलिंग वास्तु कला से निर्मित इस मंदिर के शिखर पर स्थित चक्र और ध्वज सबका ध्यान आकर्षित करता है।चक्र सुदर्शन चक्र का प्रतीक है और लाल ध्वज भगवान जगन्नाथ के मंदिर होने का प्रतीक है। गंग वंश के अब तक अन्वेषित ताम्र पत्रों के अनुसार वर्तमान मंदिर के निर्माण कार्य को कलिंग राजा अनंतवर्मन चोडगंग देव ने आरम्भ कराया था। मंदिर के जगमोहन और विमान भाग इनके शासन काल 1078- 1148 में बने थे। फिर सन 1197 में जाकर उड़ीसा प्रान्त के शासक अनंग भीम देव ने इस मंदिर को वर्तमान रूप दिया था। निर्माण के बाद से मंदिर में जगन्नाथ अर्चना सन 1558 तक होती रही। इस वर्ष अफगान जनरल काला पहाड़ ने उड़ीसा पर हमला किया और मूर्तियां तथा मंदिर के भाग ध्वंस किए और पूजा बंद करा दी । ऐसी परिस्थिति में मंदिर के विग्रहों को गुप्त रूप से चिलिका झील मे स्थित एक द्वीप मे रखागया। बाद में, रामचंद्र देब के खुर्दा में स्वतंत्र राज्य स्थापित करने पर, मंदिर और इसकी मूर्तियों की पुनर्स्थापना हुई। भगवान जगन्नाथ का मुख्य मंदिर वक्ररेखीय आकार का है, जिसके शिखर पर विष्णु का श्री सुदर्शन चक्र (आठ आरों का चक्र) मंडित है। इसे नीलचक्र भी कहते हैं। यह अष्टधातु से निर्मित है और अति पावन और पवित्र माना जाता है। मंदिर का मुख्य ढांचा एक 214-फुट (65 मी.) ऊंचे पाषाण चबूतरे पर बना है। इसके भीतर आंतरिक गर्भगृह में मुख्य देवताओं की मूर्तियां स्थापित हैं।
जगन्नाथ पुरी स्थित जगन्नाथ मंदिर के उद्गम से जुड़ी अनेक पौराणिक कथाएँ प्रचलित हैं। एक परम्परागत कथा के अनुसार, राजा इंद्रद्युम्न मालवा के राजा थे, जिनके पिता का नाम भारत और माता सुमति थीं, उन्होंने ही पुरी के समुद्र तट पर जगन्नाथ मंदिर सर्वप्रथम बनवाई थी । पौराणिक कथा के अनुसार भगवान जगन्नाथ की इंद्रनील या नीलमणि से निर्मित मूल मूर्ति, एक अगरु वृक्ष के नीचे मिली थी। यह मूर्ति इतनी चकचौंध करने वाली थी, कि धर्म ने इसे पृथ्वी के नीचे छुपाना चाहा। कुछ स्थानों में इसे सबर काबिले के लोगों के द्वारा छुपाये जाने की बात कही गई है। कथा के अनुसार एक रात्रि राजा इंद्रद्युम्न को सपने में जगन्नाथ के दर्शन हुए।जगन्नाथ अर्थात भगवान विष्णु ने उनको सपने में दर्शन देते हुए कहा कि नीलांचल पर्वत की एक गुफा में मेरी एक मूर्ति है, उसे नीलमाधव कहते हैं। तुम एक मंदिर बनवाकर उसमें मेरी यह मूर्ति स्थापित कर दो। राजा ने स्वप्न की बात मान अपने सेवकों को नीलांचल पर्वत नीलमाधव की खोज में भेजा। उन सेवकों में से एक था ब्राह्मण विद्यापति। विद्यापति ने सुन रखा था कि सबर कबीले के लोग नीलमाधव की पूजा करते हैं और उन्होंने अपने देवता की इस मूर्ति को नीलांचल पर्वत की गुफा में छुपा रखा है। उसे यह भी पता था कि सबर कबीले का मुखिया विश्ववसु नीलमाधव का उपासक है और उसी ने मूर्ति को गुफा में छुपा रखा है। चतुर विद्यापति ने सबर कबीले के मुखिया की बेटी से विवाह कर लिया। और वह अपनी पत्नी के माध्यम से नीलमाधव की गुफा तक पहुंचने में सफल हो गया। उसने मूर्ति चुरा ली और राजा को लाकर दे दी। विश्ववसु अपने आराध्य देव की मूर्ति चोरी होने से अत्यंत दु:खी हुआ। अपने भक्त के दु:ख से भगवान भी दु:खी हो गए और गुफा में लौट गए, लेकिन साथ ही राजा इंद्रद्युम्न के प्रार्थना से प्रसन्न हो उससे कहा कि वह अगर उनके लिए एक बिशाल मंदिर बनवा दे तो एक दिन उनके पास जरूर लौटेंगे । राजा ने मंदिर बनवा दिया और भगवान विष्णु से मंदिर में विराजमान होने के लिए प्रार्थना की । इस पर भगवान ने कहा कि तुम मेरी मूर्ति बनाने के लिए समुद्र में तैर रहा दारू नामक पेड़ का बड़ा टुकड़ा उठाकर लाओ, जो द्वारिका से समुद्र में तैरकर पुरी आ रहा है। राजा के सेवकों ने उस पेड़ के टुकड़े को तो ढूंढ लिया, लेकिन सब लोग मिलकर भी उस पेड़ को नहीं उठा पाए। तब राजा ने नीलमाधव के अनन्य भक्त सबर कबीले के मुखिया विश्ववसु की ही सहायता लेने की सोची । उन्होंने विश्ववसु की सहायता ली और सब उस वक्त हैरान रह गए, जब विश्ववसु दारु के उस भारी-भरकम लकड़ी को उठाकर मंदिर तक ले आए।तत्पश्चात राजा के कारीगरों ने लकड़ी से भगवान की मूर्ति गढ़ने की बहुत कोशिश की , लेकिन कोई भी लकड़ी में एक छैनी तक भी नहीं लगा सका। तब तीनों लोक के कुशल कारीगर भगवान विश्वकर्मा एक बूढ़े व्यक्ति का रूप धरकर आए। उन्होंने राजा को कहा कि वे नीलमाधव की मूर्ति बना सकते हैं, लेकिन साथ ही उन्होंने अपनी शर्त भी रखी कि वे एक कक्ष में बंद होकर इक्कीस दिन में मूर्ति बनाएंगे और अकेले में बनाएंगे। कोई उन्हें तंग अथवा बाधा उपस्थित न करे, कोई उनको बनाते हुए नहीं देख सकता। उनकी शर्त मान ली गई और बिश्वकर्मा मूर्ति बनाने लगे । कुछ दिन तक लोगों को आरी, छैनी, हथौड़ी की आवाजें आती रहीं , परन्तु बाद में वह कुछ मद्धिम पड़ गई । यह स्थिति देख राजा इंद्रद्युम्न की रानी गुंडिचा अपने को रोक नहीं पाई और वह दरवाजे के पास गई तो उसे कोई आवाज सुनाई नहीं देने से वह घबरा गई। उसे लगा बूढ़ा कारीगर मर गया है। उसने राजा को इसकी सूचना दी। राज स्वयं द्वार तक गए लेकिन अंदर से कोई आवाज सुनाई नहीं देने के कारण राजा को भी ऐसा ही लगा। सभी शर्तों और चेतावनियों को दरकिनार करते हुए राजा ने कमरे का दरवाजा खोलने का आदेश दिया। जैसे ही कमरा खोला गया तो बूढ़ा व्यक्ति गायब था और उसमें तीन अधूरी मूर्तियां पड़ी मिलीं। भगवान नीलमाधव और उनके भाई के छोटे-छोटे हाथ बने थे, लेकिन उनकी टांगें नहीं थीं, जबकि सुभद्रा के हाथ-पांव बनाए ही नहीं गए थे। राजा ने इसे भगवान की इच्छा मानकर इन्हीं अधूरी मूर्तियों को नवनिर्मित मंदिर में स्थापित कर दिया। तब से लेकर आज तक तीनों भाई बहन इसी रूप में विद्यमान हैं।बाद में कलेवर बदलने के समय भी ऐसी ही अर्द्धनिर्मित मूर्तियां बनाई और स्थापित की जाने की परिपाटी बना दी गई जो आज तक बद्दस्तूर जारी है। पौराणिक मान्यतानुसार जगन्नाथ , बलभद्र व सुभद्रा की प्रतिमाएं प्रतिवर्ष नहीं बदली जाती हैं बल्कि आषाढ़ के मलमास अर्थात भारतीय पंचांगानुसार दो आषाढ़ पड़ने वाले वर्ष में ही बदली जाती हैं ,जिसे कलेवर बदलना कहा जाता है ।जो नयी प्रतिमा रहती है वह भी पूरी बनी हुई नहीं रहती है। कई पौराणिक ग्रंथों में राजा इंद्रद्युम्न और उनके यज्ञ के बारे में विस्तार से लिखा है। उन्होंने यहां कई विशाल यज्ञ किए और एक सरोवर बनवाया।
इसी कथा से मिलती-जुलती एक अन्य कथा भी प्रचलित है । जगन्नाथ मंदिर से जुड़े इस ऐतिहासिक कथा के अनुसार श्रीकृष्ण की मृत्यु के पश्चात् जब उनके पार्थिव शरीर को द्वारिका लाया जाता है, तब बलराम अपने भाई की मृत्यु से अत्यधिक दुखी होकर कृष्ण के शरीर को लेकर समुद्र में कूद जाते है, उनके पीछे-पीछे सुभद्रा भी कूद जाती है । इसी समय भारत के पूर्व में स्थित पुरी के राजा इन्द्रद्विमुना (इन्द्रद्युम्न) को स्वप्न में यह बात दिखाई दी कि भगवान् का शरीर समुद्र में तैर रहा है, अतः उन्हें यहां कृष्ण की एक विशाल प्रतिमा बनवानी चाहिए और मंदिर का निर्माण करवाना चाहिए। उन्हें स्वप्न में देवदूत बोलते है कि कृष्ण के साथ, बलराम, सुभद्रा की लकड़ी की प्रतिमा बनाई जाये। और श्रीकृष्ण की अस्थियों को उनकी प्रतिमा के पीछे छेद करके रखा जाये। राजा का सपना सच हुआ, उन्हें कृष्ण की अस्थियाँ मिल गई, लेकिन अब वह सोच में पड़ गया कि इस प्रतिमा का निर्माण कौन करेगा? माना जाता है, शिल्पकार भगवान् विश्वकर्मा एक बढई के रूप में प्रकट होते है, और मूर्ति निर्माण का कार्य शुरू करते है। शेष कथा उपरोक्त कथा की भांति ही है । उपरोक्त कथा की तरह ही कार्य शुरू करने से पहले विश्वकर्मा सभी से बोलते हैं कि उन्हें काम करते वक़्त परेशान नहीं किया जाये, नहीं तो वे बीच में ही काम छोड़ कर चले जायेगें। कुछ दिन व्यतीत हो जाने के बाद भी मूर्ति बनने की खबर नहीं मिल पाने के कारण उतावली में राजा इन्द्रद्विमुना बढई के कक्ष का दरवाजा खोल देते है, ऐसा होते ही भगवान् विश्वकर्मा गायव हो जाते हैं और मूर्तियाँ अधूरी ही रह जाती हैं।
जगन्नाथ मंदिर के सम्बन्ध में कुछ इतिहासकारों का विचार है कि इस मंदिर के स्थान पर पूर्व में एक बौद्ध स्तूप होता था। उस स्तूप में गौतम बुद्ध का एक दांत रखा था। बाद में इसे इसकी वर्तमान स्थिति, कैंडी, श्रीलंका पहुंचा दिया गया। इस काल में बौद्ध धर्म को वैष्णव सम्प्रदाय ने आत्मसात कर लिया था और तभी जगन्नाथ अर्चना ने लोकप्रियता पाई। यह दसवीं शताब्दी के लगभग हुआ, जब उड़ीसा में सोमवंशी राज्य चल रहा था। ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार महान सिख सम्राट महाराजा रणजीत सिंह ने इस मंदिर को प्रचुर मात्रा में स्वर्ण दान किया था, जो कि उनके द्वारा अमृतसर स्थित स्वर्ण मंदिर को दिये गये स्वर्ण से भी कहीं अधिक था। उन्होंने अपने अंतिम दिनों में यह वसीयत भी की थी, कि विश्व प्रसिद्ध कोहिनूर हीरा, जो विश्व में अब तक सबसे मूल्यवान और सबसे बड़ा हीरा है, पुरी स्थित जगन्नाथ मंदिर को दान कर दिया जाये। लेकिन यह सम्भव न हो सका, क्योंकि उस समय तक, ब्रिटिश ने पंजाब पर अपना अधिकार करके, उनकी सभी शाही सम्पत्ति जब्त कर ली थी। वर्ना कोहिनूर हीरा, भगवान जगन्नाथ के मुकुट की शान होता। जगन्नाथ रथयात्रा महोत्सव के आयोजन के सन्दर्भ में अनेक कथाएँ व मान्यताएँ प्रचलित हैं । लोकमान्यतानुसार एक बार श्रीकृष्ण की बहन सुभद्रा अपने मायके आती है, और अपने भाईयों से नगर भ्रमण करने की इच्छा व्यक्त करती है, तब कृष्ण बलराम, सुभद्रा के साथ रथ में सवार होकर नगर परिभ्रमण के लिए निकलते है। कहा जाता है कि इसी के बाद से रथ यात्रा का पर्व शुरू हुआ। कहा जाता है कि जगन्नाथपुरी स्थित गुंडीचा मंदिर में स्थित देवी श्रीकृष्ण की मासी है, जो तीनों भाई-बहनों को अपने घर आने का निमंत्रण देती है ।श्रीकृष्ण, बलराम सुभद्रा के साथ अपनी मासी के घर दस दिन के लिए रहने जाते है।
एक अन्य मान्यतानुसार श्रीकृष्ण के मामा कंस उन्हें मथुरा बुलाते है, इसके लिए कंस गोकुल में सारथि के साथ रथ भिजवाता है। कृष्ण अपने भाई -बहन के साथ रथ में सवार होकर मथुरा जाते है, जिसके बाद से रथ यात्रा पर्व की शुरुआत हुई। कुछ लोग का मानना है कि इस दिन श्री कृष्ण कंस का वध करके बलराम के साथ अपनी प्रजा को दर्शन देने के लिए बलराम के साथ मथुरा में रथ यात्रा करते है। एक अन्य कथा के अनुसार कृष्ण की रानियाँ माता रोहिणी से उनकी रासलीला सुनाने को कहती है. माता रोहिणी को लगता है कि कृष्ण की गोपियों के साथ रासलीला के बारे सुभद्रा को नहीं सुनना चाहिए, इसलिए वह उसे कृष्ण, बलराम के साथ रथ यात्रा के लिए भेज देती है । उसी समय वहां नारदजी प्रकट होते है, तीनों को एक साथ देख वे प्रसन्नचित्त हो जाते है, और प्रार्थना करते हैं कि इन तीनों के ऐसें ही दर्शन हरवर्ष होते रहे।उनकी यह प्रार्थना सुन ली जाती है और रथ यात्रा के द्वारा इन तीनों के दर्शन सबको होते रहते है।