मनमोहन कुमार आर्य
यज्ञ परोपकार के कार्यों को कहते हैं। यज्ञ ऐसा कार्य व कर्म है जिससे अपना भला होता है व दूसरों को भी लाभ पहुंचता है। हमारा भला दूसरों का भला करने से ही हो सकता है, दूसरों को हानि पहुंचा कर हमारा भला कभी नहीं हो सकता। इसका कारण यह है कि यह प्रकृति व सृष्टि सच्चिदानन्दस्वरूप ईश्वर की बनाई हुई है। यह सृष्टि ईश्वर की जीवात्मारूपी-प्रजा जो मनुष्यों सहित अनेकानेक अगणित योनियों में है, के सुखोपभोग के लिए है। हमें सभी जीवात्माओं वा प्राणियों के जीवनयापन में सहयोग करना है। यदि हम सहयोग करते हैं तो यह भी एक यज्ञ है। यदि हम प्राणीमात्र के जीवनयापन में सहयोग के स्थान पर उसके विरोधी बनते हैं तो यह यज्ञ न होकर हानिकारक कर्म है जिसकी हानि हमें ईश्वरीय दण्ड के रूप में होती है। यज्ञ के बारे में ब्राह्मण ग्रन्थ कहते हैं यज्ञ देवपूजा, संगतिकरण व दान का पर्याय है। देवपूजा का अर्थ है चेतन व जड़ देवताओं की पूजा वा सत्कार। चेतन देवताओं में ईश्वर, माता, पिता, विद्वान आचार्य व अन्य मनुष्य आदि सहित सभी प्राणी भी आते हैं। इनका सबका यथायोग्य सत्कार देवपूजा होती है। जड़ पूजा में मुख्यतः पंचमहाभूत व अन्य दैवीय शक्तियों की पूजा आती हैं। इनकी पूजा उनका सन्तुलन न बिगड़ने देना, इसका ध्यान रखना और सन्तुलन बनाये रखने के प्रति सावधान रहना व इसके लिए आवश्यक क्रियायें करना ही जड़ देवों की पूजा है। चेतन व जड़ देवों की पूजा हेतु ऋषि दयानन्द जी ने पंचमहायज्ञविधि का विधान किया है। ब्रह्मयज्ञ वा सन्ध्या ईश्वर की उपासना व पूजा है। देवयज्ञ अग्निहोत्र ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना सहित उसकी पूजा एवं सभी जड़ देवों की पूजा का कृत्य व कर्म है। सन्ध्या से तो उपासक को ही लाभ होता है परन्तु देवयज्ञ से वायु व वृष्टि जल सहित सभी प्राकृतिक भौतिक देवों को लाभ पहुंचता है व वह पुष्ट व समर्थवान बने रहते हैं व बनते हैं। ईश्वर ने इस सृष्टि को बनाकर यज्ञ किया है। वह सूर्य की किरणें पृथिवी पर भेज कर, उसके माध्यम से प्रकाश व ऊर्जा प्रदान कर, वायु बहाकर व जल की वृष्टि करके व अनेकानेक कार्य करके एक प्रकार का यज्ञ ही कर रहा है। हमारा यह यज्ञ उस वृहद यज्ञ का ही एक छोटा रूप है जिससे अनेकानेक लाभ होते है जिनका ज्ञान सत्यार्थप्रकाश सहित वेद व ऋषियों के अन्य ग्रन्थों का अध्ययन कर किया जा सकता है।
पंच महायज्ञ विधि में ऋषि दयानन्द जी ने पितृ यज्ञ, अतिथि यज्ञ एवं बलिवैश्वदेव यज्ञ का भी विधान कर उसकी विधि दी है। पहले चार यज्ञों में ईश्वरोपासना, देवयज्ञ में चेतन व जड़ पदार्थों का यज्ञ, पितृ व अतिथि यज्ञ में माता-पिता आदि वृद्धों सहित आचार्यों व ऋषियों आदि का सम्मान द्वारा यज्ञ हो जाता है। पांचवा यज्ञ मुख्यतः मनुष्येतर प्राणियों के लिए किया जाता है जिससे उन्हें सुखपूर्वक अपने जीवनयापन में किसी प्रकार की भी बाधा न आये अपितु सभी मनुष्यादि उसमें सहायक बनें। इस विषय पर विचार करते हैं तो हमें यह ज्ञात होता है कि ईश्वर ने यह सृष्टि न केवल कुछ व्यक्तियों के लिए अपितु अपनी समस्त जीव रूप प्रजा के लिए बनाई है। सभी जीवों का ईश्वर की सृष्टि पर समान अधिकार है। ईश्वर सभी जीवों को उनके कर्मानुसार भिन्न भिन्न योनियों में कर्म करने व फल भोगने के लिए भेजता है। वहां उन्हें उनके जीवनयापन व कर्म भोग में सहायता के लिए अनुकूल वातावरण मिलना चाहिये। ईश्वर तो उन्हें जीवन देने व उनका पालन करने में सहयोगी है ही, सभी मनुष्यों को भी उनके जीवनयापन में सहयोगी होना चाहिये। यही बलिवैश्वदेव यज्ञ का महत्व व प्रयोजन ज्ञात होता है। इसका कारण यह है कि हम अपने पूर्वजन्मों के कर्मों का सुख व दुःख रूपी फलों को भोगने के लिए इस संसार में आये हैं और हमारी ही भांति सभी मनुष्य व अन्य सभी प्राणी भी इसी निमित्त व प्रयोजन से संसार में परमात्मा द्वारा भेजे गये हैं। यदि कोई मनुष्य व प्राणी किसी दूसरे प्राणी के सामान्य जीवनयापन में बाधक बनता है तो वह ईश्वर के नियमों को तोड़ता है, ऐसा अनुभव होता है। ईश्वर की व्यवस्था को भंग करने वाले मनुष्यों को जन्म जन्मान्तर में उसके कर्मों का फल अवश्य मिलता है। जो ईश्वर की व्यवस्था को भंग करता है उसे निश्चय ही दुःख रूपी दण्ड मिलता है जिसमें मनुष्य से इतर निम्न योनियों में जन्म लेकर अपने पापों को भोगना पड़ता है। अतः सभी मनुष्यों को इस विषय पर विचार कर व आर्ष ग्रन्थों का अध्ययन व स्वाध्याय कर ईश्वर की व्यवस्था को जानने का प्रयत्न करना चाहिये और उसी भावना के अनुरूप अपने कर्तव्यों का निश्चय कर ईश्वर की वेदविहित आज्ञानुसार कर्म करने चाहिये। यदि ऐसा करेंगे तो निश्चय ही हम सुखी होंगे और संसार के सभी लोग भी सुखी व निरामय अर्थात् रोग व शोक रहित सुखी जीवन व्यतीत करेंगे।
हम देवयज्ञ करते हैं तो इससे मनुष्यों सहित सभी प्राणियों को लाभ होता है और हम अपने उस शुभ कर्म से इस जन्म व परजन्मों में ईश्वर से उसके फल प्राप्त कर लाभान्वित होते हैं। मातृ पितृ व आचार्यों सहित विद्वानों की सेवा सत्कार से भी हमें इस जन्म व परजन्मों में ईश्वर लाभ पहुंचाता है। गाय, बैल, भैंस, भेड़, बकरी, अश्व, कुत्ता आदि अनेक पशु समाज में हमें दृष्टिगोचर होते हैं। इनसे हमें अनेक प्रकार से लाभ पहुंचता है। यह लाभ एक प्रकार से हम पर इनका ऋण होता है जिसे हमें बलिवैश्वदेव यज्ञ के रूप में उतारना होता है। इसे हम उनके प्रति अच्छा सहयोगपूर्ण व्यवहार करके पूरा कर सकते हैं। हमारे द्वारा उन्हें कष्ट न मिले अपितु हम उन्हें उनके भोजन आदि के द्वारा जितना सुख पहुंचा सके उतना ही उत्तम है। ऐसा अनुभव होता है कि हमारे कारण पशु-पक्षी व अन्य प्राणियों को किसी प्रकार का भी यदि सुख होता है तो वह हमारा शुभ कर्म होता है और परमात्मा के द्वारा हमें उस कर्म का फल इस जन्म व परजन्मों में जाति, आयु और भोग के रूप में मिलता है। अतः हमें पशु-पक्षियों के प्रति विशेष रूप से सहिष्णु व संवेदनशील होना होगा और इसके लिए उनके प्रति मित्रता का भाव रखना होगा। ऐसा करके हम अपना इहलोक व परलोक सुखी व उन्नत बना सकते हैं। सृष्टि के आरम्भ से वैदिक धर्म के पूर्वजों की यही परम्परायें चली आ रही हैं। मांस व मदिरा का सेवन घोर पाप व तामसिक कर्म है जिसका परिणाम दुःख, रोग व अल्पायु सहित बुद्धि में विकार के रूप में ही होता है। इसके साथ जन्म जन्मान्तरों में निम्न योनियों में भ्रमण कर दुःख भोगने पड़ते हैं। यहां यह नियम लागू होता है जो जैसा बोयेगा वैसा ही काटेगा। बबूल का पेड़े बोयेंगे तो उसमें आम कदापि नहीं लगेंगे। पशुओं की हिंसा कर उन्हें दुःख पहुंचा कर हम कभी सच्चा सुख प्राप्त नहीं कर सकते। ऋषि दयानन्द जी ने बलिवैश्वदेव यज्ञ की विधि भी पंचमहायज्ञविधि पुस्तक में दी है। उसका अध्ययन कर इस यज्ञ में निहित भावना को आत्मसात कर निर्दिष्ट विधि के अनुरूप कर्म व क्रियायें करनी चाहिये और शंका होने पर विद्वानों से उसका समाधान करना चाहिये। चीटीं से हाथी तक सभी मनुष्य व अन्य प्राणियों में हमारे समान ही आत्मायें हैं। उन सबमें परमात्मा भी विद्यामान है जो सबके कर्म फल भोग का साक्षी है और सबको सबके कर्मों का फलदाता है। अतः कर्म करते समय ईश्वर की सर्वव्यापकता व उसकी व्यवस्था को समझ कर ही कर्म करना चाहिये। यह ध्यान रखना चाहिये कि हमारा कोई भी कर्म उसकी व्यवस्था के विरुद्ध न हो। इसी के साथ हम इस लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।